अभिजीत मिश्र

Welcome to Suvichar Sangrah सफलता हमारा परिचय दुनिया को करवाती है और असफलता हमें दुनिया का परिचय करवाती है :- प्रदीप कुमार पाण्डेय. This is the Only Official Website of सुविचार संग्रह     “Always Type www.suvicharsangrah.com . For advertising in this website contact us suvicharsangrah80@gmail.com.”

Sunday, November 10, 2024

सर्व प्रथम अपनी सेवा और सहायता

November 10, 2024 0 Comments










🔹 इसमें कोई सन्देह नहीं की इस जगत में अनेक प्रकार के पुण्य और परमार्थ हैं। हमारे शास्त्रों में अनेक प्रकार के धर्मिक अनुष्ठानों का सविस्तार विधि विधान है और उनके सुविस्तृत महात्म्यों का वर्णन है। दूसरों की सेवा सहायता करना पुण्य कार्य है, इससे कीर्ति आत्म संतोष तथा सद्गति की प्राप्ति होती है। परन्रतु इन सबसे बढ़ कर भी एक पुण्य परमार्थ है और वह है-आत्म निर्माण। अपने दुर्गुणों को, कुविचारों को, कुसंस्कारों को, ईर्ष्या, तृष्णा, क्रोध, डाह, क्षोभ, चिन्ता, भय एवं वासनाओं को विवेक की सहायता से आत्मज्ञान की अग्नि में जला देना। यह इतना बड़ा यज्ञ है जिसकी तुलना सशस्त्र अश्वमेधों से नहीं हो सकती। अपने अज्ञान को दूर करके मन मन्दिर में ज्ञान का दीपक जलाना भी भगवान की सच्ची पूजा है। अपनी मानसिक तुच्छता, दीनता, हीनता, दासता, को हटाकर निर्भयता, सत्यता, पवित्रता एवं प्रसन्नता की आत्मिक प्रवृत्तियाँ बढ़ाना करोड़ मन सोना दान करने की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है।

हर मनुष्य अपना-अपना आत्म निर्माण करे तो यह पृथ्वी स्वर्ग बन सकती है। फिर मनुष्यों को स्वर्ग जाने की इच्छा करने की नहीं, वरन् देवताओं के पृथ्वी पर आने की आवश्यकता अनुभव होने लगेगी । दूसरों की सेवा सहायता करना पुण्य है, पर अपनी सेवा सहायता करना इससे भी बड़ा पुण्य है। अपनी शारीरिक मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक स्थिति को ऊँचा उठाना, अपने को एक आदर्श नागरिक बनाना इतना बड़ा धर्म कार्य है जिसकी तुलना अन्य किसी भी पुण्य परमार्थ से नहीं हो सकती।

Wednesday, May 29, 2024

आइये स्वयं को पहचानें

May 29, 2024 0 Comments











   खुद के परिश्रम और पुरुषार्थ के   अभाव में जीवन की उन्नति एवं उत्थान के रसस्ते स्वयं अवरूद्ध ही नहीं बंद हो जाते हैं। दूसरे हमें केवल सलाह दे सकते हैं लेकिन उस पर चलना स्वयं हमें ही है। केवल हम ही इस दुनिया में खुद की किस्मत बदल सकते हैं। मात्र हम ही अपने चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकते हैं एवं केवल हम ही हैं जो स्वयं अपने जीवन को सुखी और आनंदमय बना सकते हैं। 


    हमारी किसी भी समस्या का श्रेष्ठ हल हमारे खुद के अतिरिक्त किसी अन्य के पास नहीं हो सकता है। केवल हम स्वयं अपनी प्रत्येक समस्या का हल ढूँढ सकते हैं और अपने जीवन को एक आदर्श जीवन बना सकते हैं। गहराई से मनोमंथन करने पर हमें अनुभव होगा कि हमारे अतिरिक्त कोई और नहीं है जो हमाते जीवन को सुखमय एवं आनंदमय बना सकता है क्योंकि दूसरे केवल मार्ग दिखायेंगे, चलना हमें स्वयं ही पड़ेगा।

Tuesday, December 19, 2023

वास्तविक गुरु कौन.....?

December 19, 2023 0 Comments


 










वास्तविक_गुरू_कौन_?

विचार_करें ।

#बिना_पढ़े_पसंद_या_टिप्पणी_ना_करें 


"गुरू जी" एक बहुत ही सम्मानित शब्द है।

जिसके सम्मान में हमारा मस्तक स्वतः श्रद्धा से झुक जाए। जो अज्ञानरूपी अन्धकार को मिटा दे, उसका नाम "गुरू" है।

लेकिन, मुझे लगता है कि शायद हम लोगों ने आजकल गुरू की परिभाषा ही बदल दी है।

जहाँ तक मैं समझता हूँ कि आज के समय में हम लोग अपने असली गुरू को भूलकर सिर्फ और सिर्फ नकली गुरूओ के मोहजाल मे फंसते जा रहे हैं जो टेलिविजन आदि के माध्यम से अपना माया जाल फैलाकर हमे दिगभ्रमित कर देते हैं।

वास्तविक एवं पहले गुरू हमारे माता- पिता होते हैं।

दुसरे गुरू हमारा परिवार व परिवेश

तीसरे गुरू हमारे शिक्षक 

और चौथे गुरू हमारे परमपिता परमात्मा होते हैं।

इनके अलावा मुझे और किसी गुरू के बारे मे पता नहीं है।

( ये मेरे स्वयं के विचार है।)


अब शास्त्रो के कथन पर विचार करें गुरू के विषय में :-

गुरू को चाहिए कि वह शिष्य को पुत्र की तरह मानता हुआ, उसकी उन्नति की इच्छा करता हुआ, धर्मो के रहस्य गुप्त न रखते हुए उसे विद्या प्रदान करे।

 अकेले गुरू से ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता । उसके लिए अपनी बुद्धि से भी बहुत कुछ सोचने समझने की आवश्यकता है।

" यदि हम स्वयं विचार कर निर्णय नही करेंगे, तो ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को कैसे जान सकेंगे? 

कहीं कहीं शास्त्रो में स्वंय के "विवेक" को ही जन्मजात गुरू कहा गया है।


अर्थात हम गुरू से शिक्षा तो हासिल कर सकते है,परन्तु ब्रह्म के स्वरूप को जानने के लिए अपनी ही बुद्धि का इस्तेमाल करना होगा ।

यदि हम भगवान राम, कृष्ण, हनुमान, सुदामा, पाण्डव के जीवनी पर नजर डाले तो यहाँ भी यही बात सामने आती है कि, उन्होने भी सिर्फ अध्ययन करने के लिए ही अपने अपने गुरूओं की शरण ली थी।


मित्रों, मेरा उदेश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नही है। 

मैं यह भी नही कहता हुँ कि मेरा यह पोस्ट १००% सही है, शायद मै गलत भी हो सकता हुँ।


मित्रों, आज कुछ गलत लोगो ने हमारे देश की संस्कृति को नाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ रखी है। जिस कारण अत्यन्त दुःख होता है।

सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर अपना समय देने/लेख पढने के लिए दिल से आभार।

Monday, September 4, 2023

स्वयं के दुर्गुणों से लडना होगा

September 04, 2023 0 Comments










संसार में कोई किसी को उतना परेशान नहीं करता, जितना कि मनुष्य के अपने "दुर्गुण" और "दुर्भावनाएं। दुर्गुण रूपी शत्रु हर समय मनुष्य के पीछे लगे रहते हैं, वे किसी भी क्षण उसे चैन नहीं लेने देते।

संसार में हर व्यक्ति अपने को पूर्ण निर्दोष और पूर्ण बुद्धिमान मानता है। न ही उसे अपनी त्रुटियाँ समझ आती हैं और न अपने में दोष दिखलाई पड़ता है। इस एक दुर्बलता ने मानव जाति की प्रगति में इतनी बाधा पहुँचाई है, जितनी संसार की समस्त बाधाओं ने मिलकर भी न पहुँचाई होगी।

       सृष्टि के सब प्राणियों से अधिक बुद्धिमान माना जाने वाला मनुष्य जब यह सोचता है कि "दोष तो दूसरों में ही हैं, उन्हीं की निंदा करनी है, उन्हें ही सुधारना चाहिए। हम स्वयं तो पूर्ण निर्दोष हैं, हमें सुधरने की कोई आवश्यकता नहीं है", तब यह कहना गलत नहीं होगा कि उसकी तथाकथित बुद्धि वास्तविक नहीं है। मानव अपने इस दृष्टिकोण के कारण अपनी गलतियों का सुधार तो कर नहीं पाता बल्कि कोई अन्य उस ओर इशारा भी करता है, तो अपना अपमान महसूस होता है।  दोष दिखाने वाले को अपना शुभचिंतक मानकर उसका आभार  मानने के स्थान पर मनुष्य उस पर क्रुद्ध होता है, शत्रु मानता है और अपना अपमान महसूस करता है, इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि उस मनुष्य ने सच्ची प्रगति की ओर चलने के लिए अभी एक पैर उठाना भी नहीं सीखा।

  वाह्य प्रगति की जितनी चिंता मनुष्य द्वारा की जाती है, उतनी ही आन्तरिक प्रगति के बारे में की जाए तो मनुष्य दोहरा लाभ प्राप्त कर सकता है, किंतु यदि आंतरिक उन्नति को गौण रखा जाय और बाहरी उन्नति के लिए ही निरंतर दौड़-धूप की जाती रहे तो कुछ भौतिक साधन- सामग्री भले ही एकत्रित कर ली जाए, परन्तु उसमें भी उसे शांति नहीं मिलेगी।  

       अपने दोषों की ओर से अनभिज्ञ रहने से बड़ा छलावा इस संसार में और कोई नहीं हो सकता, इसका मूल्य जीवन की असफलता का पश्चाताप करते हुए ही चुकाना पड़ता है।

  प्रारम्भ अपने छोटे-छोटे दोष-दुर्गुणों से करना चाहिए, उन्हें ढूँढना और हटाने का प्रयास किया जाना चाहिए। इस तरह से आगे बढ़ने वाले को जो छोटी- छोटी सफलताएँ प्राप्त होती हैं उनसे उसका साहस निरन्तर बढ़ता ही चला जाता है। उस सुधार से मनुष्य को जो प्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होता है, उसे देखते हुए बड़े कदम उठाने का साहस भी पैदा होता है और उन्हें पूरा करने का मनोबल भी एकत्रित हो चुका होता है।

पारिवारिक संतुलन

September 04, 2023 0 Comments

 







परिवार में सब लोग एक स्वभाव के नहीं होते। पुर्व जन्मों से संग्रह अनुसार उनके स्वयं के स्वभाव-संस्कार होते हैं । अतः परिवार का मुखिया अपनी रूचि के अनुसार परिवार के सभी सदस्यों को मिट्टी के खिलौने की तरह नहीं ढाल सकता है । इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति उस व्यक्ति को ही स्वीकार करते हैं जिससे अधिक से अधिक सामंजस्य बनाया जा सके जिससे स्नेह-सद्भाव और सहयोग की कोमल श्रृंखला में वे परस्पर बॅंधें रहें। परिवार के सदस्यॊं के अवांछनीय दोष और दुर्गुणों के निरावरण एवं सत्प्रवृत्तियों के सम्वर्धन का उत्तरदायित्व चालाक व्यक्ति इस प्रकार निर्वाह करते हैं कि साँप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे। हमें ध्यान रखना चाहिए कि सुधार की उग्रता इतनी भी न हो कि स्नेह-सद्भाव का धागा टूटने और मोती बिखरने की स्थिति हो जाय । परिवार के मुखिया द्वारा परिवार के सदस्यों की उतनी उपेक्षा भी न की जाय कि हर व्यक्ति अनियन्त्रित होकर अपनी मनमानी करने लगे और परिवार का उद्देश्य ही नष्ट हो जाय।

            परिवार के रुप में छोटे समूह को स्नेहसिक्त, संतुलित, प्रगतिशील, और सुसंस्कारी बनाने के लिए बीच का मार्ग और आदर्शवादी विधि-व्यवस्था अपनानी पड़ती है। जो इस सन्तुलन का अभ्यस्त हो जाता है उसे परिवारिक सुख की कमी नहीं रहती। भले ही परिवार के सभी व्यक्ति उतने सुसंस्कारी न हों।

Tuesday, May 9, 2023

स्वयं का सुधार

May 09, 2023 0 Comments


 










              स्वयं का सुधार करने के यदि हम इच्छुक हैं तो स्वयं का सुधार करने के लिए सबसे आवश्यक और पहला कदम है कि हम पहले अपनी समीक्षा करें।

            यदि हम स्वयं का सुधार करना आवश्यक समझते हैं तो सर्वप्रथम हमें ईमानदारी से स्वयं की समीक्षा करने के लिए तत्पर रहना होगा । यदि हम स्वयं की समीक्षा करना प्रारम्भ कर दिये तो हम गिरी हुई स्थिति में पड़े नहीं रह सकते और हमारे जीवन का विकास होना निश्चित है। इस परिस्थिति में प्रगति के पथ पर चलने से हमें कोई नहीं रोक सकता । यदि हम उतावले,  जल्दबाज, असंतुष्ट और उद्विग्न हैं तो निश्चित ही हमारी गिनती अधपगले में की जा सकती है। ऐसे व्यक्ति जो कुछ चाहते हैं उसे तुरन्त ही प्राप्त हो जाने की कल्पना किया करते हैं। यदि प्राप्ति में जरा भी विलम्ब होता है तो हम अपनी मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और प्रगति के लिए अत्यन्त ही आवश्यक और महत्वपूर्ण गुण मानसिक स्थिरता को खोकर असंतोष रूपी भारी विपत्ति को आत्मसात् कर लेते है, जिसकी वजह से हम दीर्घकालीन उन्नति मार्ग पर नहीं चल सकते। हमारा स्वतन्त्र विवेक जिस निष्कर्ष हमें पर पहुँचाता है उसे साहस के साथ हमें प्रकट करते हुए दूसरों को बताना होगा उसके लिए हमें कितने ही विरोध का सामना क्यों न करना पड़े, हमारा विवेक  जो निर्णय देता है, उसका गला हमें कदापि नहीं घोटना चाहिए । इससे हमारा बौद्धिक तेज, विचारों की प्रखरता बढ़ेगी और हमारा विवेक हमें और अधिक कार्य कुशल और सामर्थ्यवान बनायेगी। आनंद का सबसे बड़ा दुश्मन यदि कोई  है तो वह है -असंतोष। हमें प्रगति के पथ पर उत्साहपूर्वक बढते हुए अपना सम्पूर्ण पुरुषार्थ करें, सकारात्मक और आशापूर्ण एक अप्रतिम सुंदर भविष्य की रचना के लिए संलग्न रहने के  साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि असंतोष की आग में जलना हम सदा सर्वदा के लिए छोड़ दें। असन्तोष रुपी दावानल में आनंद ही नहीं बल्कि हमारा मानसिक संतुलन और सामर्थ का स्रोत भी समाप्त हो जाता है। असंतोष से प्रगति का पथ प्रशस्त नहीं बल्कि अवरुद्ध ही होता जाता है इसलिए हमें सदैव अवरोधों की परवाह किये बिना असन्तोष, जल्दबाजी, उद्विघ्नता से दूर सन्तोष का मार्ग चयन करना होगा ।

यह लेख लेखक‌ का निज विचार है अपवाद/गलती सम्भव है।

सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर अपना अमूल्य समय देने के लिए आप सभी देव तल्य पाठकों का ह्रदय तल से आभार एवं आर्शीवाद स्वरुप सुधार हेतु टिप्पणी की आकांक्षा ।🙏

 

Wednesday, April 19, 2023

सत्य का मार्ग

April 19, 2023 0 Comments


 











जब बात सत्य के मार्ग की आती है तो सत्य के मार्ग को सामान्यतः शान्ति का मार्ग आम जन समझते हैं। जब कि वर्तमान समय में सत्य इसके ठीक विपरीत है क्योंकि वर्तमान परिवेश में सत्य का मार्ग शांति का मार्ग कभी भी हो ही नहीं सकता । वर्तमान समय की माँग यह है कि जिसे सुख, शांति और प्रसिद्धि की चाहत है, वह भूलकर भी सत्य को धारण न करे क्योंकि यह सब वर्तमान परिवेश में चाटुकारिता, वाह्य आडम्बर, वाह्य प्रदर्शन आदि में समाहित हो चुका है ।

     सत्य का मार्ग अवश्य ही एक राजपथ कहा जा सकता है परन्तु यह  ऐसा राजपथ, जिसमें हर पग हर पल पर विरोध और अवरोध के नुकीले कीलों और काँटों का समना करना पड़ता है।

        जो वर्तमान परिवेश चल रहा है उसमें यदि किसी को जीवन में मान और सम्मान की इच्छा हो उसको सत्य का मार्ग सदैव बंद ही समझना चाहिए क्योंकि वर्तमान समय में एक सत्य के पथिक को पग-पग पर अपमान व सामाजिक व्यंग्य के अतिरिक्त कुछ प्राप्त नहीं हो सकता ।

          जिसे मीरा की तरह जहर पीना और कबीर की तरह कटुता में जीने की चाह और दृढ संकल्प हो वही सत्य के मार्ग का सच्चा पथिक हो सकता है, जो वर्तमान समय में खुली आँखों से स्वप्न देखने के समान है ।

यह लेखक का निज विचार है इसका अपवाद/विरोध सम्भव है।

सुविचार संग्रह (suvicharsangrh.com) पर समय देकर पुरा लेख पढ़ने के लिए आभार के साथ आर्शीवाद स्वरूप कमेंट में सुझाव की आकांक्षा।

Friday, April 14, 2023

संयुक्त परिवार

April 14, 2023 0 Comments











       संयुक्त परिवार सामान्यतः एक बृहत् परिवार है।  एकल परिवारों का ऐसा समूह जिसके सदस्यों की रसोई,पूजा  एवं संपत्ति सामूहिक होती है उसे ही सयुंक्त परिवार कहते है। संयुक्त परिवार के अंतर्गत दादा, दादी, माता- पिता, चाचा- चाची और उनके बच्चे सभी साथ रहते हैं।

कभी संयुक्त परिवार को ही सम्पूर्ण परिवार माना जाता था, परन्तु वर्तमान समय में एकल परिवार को एक फैसन के रूप में देखा जा रहा है। हमारे देश में भी पश्चिमी सभ्यता के अनुरुप आज एकल परिवार की मान्यता बढती जा रही है आर्थिक विकास के सपने में संयुक्त परिवारों का बिखरना जारी है। परन्तु आज भी संयुक्त परिवार का महत्त्व कम नहीं आँका जा सकता है। 

       परंपरागत कारोबार या खेती बाड़ी की अपनी सीमायें होती हैं जो परिवार के बढ़ते सदस्यों के लिए सभी आवश्यकतायें जुटा पाने में असमर्थ होती जा रही हैं जिससे परिवार को नए आर्थिक स्रोतों की तलाश करनी पड़ती है। जब अपने गाँव या छोटे शहर में नयी सम्भावनायें कम प्रतीत होने लगती हैं तो परिवार की नयी पीढ़ी को राजगार की तलाश में अन्यत्र जाना पड़ता है और वहीँ अपना परिवार बसाना होता है। 

     संयुक्त परिवार टूटने का सबसे बड़ा कारण यह भी है कि आपसी सामंजस्य की कमी है। मनुष्य की वृति अब ऐसी हो गयी है कि वह सिर्फ अपना भला सोचने लगा है आज कोई भी आपस में सामन्जय बना के चलना ही नहीं चाहता है, कभी जब किसी परिस्थिति वश त्याग करने की बात आती है तो सब पीछे हटने जाते हैं। आज भी कुछ  लोग ऐसे हैं जो की बचपन में पढ़े नैतिक और सामाजिक शिक्षा के पाठो को भूले नही है और उनका पालन करते है इसीलिए आज नाममात्र के संयुक्त परिवार अस्तित्व में हैं। बचपन में हमे कृतज्ञता, ईमानदारी, लालच का फल, सहायता करना ये सब सिखाया जाता था जिसे लोग व्यावहारिक रूप से संपन्न रहने की कोशिश करते थे परन्तु आज  ये सब व्यर्थ हो जाता है। आज हम स्वार्थी हो चुके हैं और केवल अपने बारे में सोचने लगते हैं इसलिए संयुक्त परिवारों का पतन होता जा रहा है।  संयुक्त परिवार को बनाये रखने में आपसी प्रेम का भाव होना बहुत आवश्यक है जिसके लिए  छोटी छोटी बातों को भूल कर आगे बढ़ा बढना पड़ता है क्योंकि ये छोटी छोटी बाते दिल में घर कर जाती हैं तो प्रेम को द्वेष में बदलने में समय नहीं लगता है और फिर टूट जाता है संयुक्त परिवार। 

      परिवार के जो लोग स्वार्थी होते हैं वे इन छोटी छोटी बातों को सींच कर बड़े बड़े वृक्षो में बदल देते हैं फिर इन्ही वृक्षो की लकड़ीया दिवार बन कर परिवार को अलग कर देती हैं।


संयुक्त परिवार में बच्चों का समुचित पालन - पोषण होता है। ऐसे परिवार में वृद्ध सदस्य जैसे- दादा, दादी, नाना, नानी भी होते हैं जो कठोर परिश्रम तो नहीं कर पाते परंतु सरलता से बालकों की देखभाल करते हैं। उनका सामाजिकरण एवं शिक्षण में भी बहुत बड़ा योगदान होता हैं। सहयोग और सामंजस्य बच्चा परिवार से ही सीख जाता है। वर्तमान में एकाकी परिवारों में पति पत्नी दोनों के कामकाजी होने की स्थिति में बच्चों के समुचित देख रेख में बहुत बड़ी बाधा उत्पन्न हो रही है। 

     संयुक्त परिवार में सभी सदस्य एक दूसरे के आचार व्यव्हार पर निरंतर नजर बनाये रखते हैं ,किसी की अवांछनीय गतिविधि पर अंकुश लगाते हैं कोई भी सदस्य असामाजिक कार्य नहीं कर पता ,बुजुर्गों के भय के कारण शराब जुआ या अन्य कोई नशा जैसी बुराइयों से बचने का प्रयास करता है और कुछ भी हो हर बड़े ओर छोटे का पूरा प्यार और दुलार मिलता हैं।

     संयुक्त परिवार में सभी सदस्यों की आवश्यकतानुसार चाहे वह कमाता हो या नहीं, धन खर्च किया जाता है। कर्ता के नियंत्रण के द्वारा अनावश्यक खर्चों से बचा जाता है। परिवार में आय और संपत्ति पर किसी भी सदस्य का विशेषाधिकार नहीं होता है इसलिए सभी सदस्य समान रूप से लाभ प्राप्त करते हैं। सभी अपनी क्षमता अनुसार आय प्रदान करते हैं और आवश्कतानुसार खर्च करते हैं।

     संयुक्त परिवार में सभी सदस्य सम्मिलित रूप से रहते हैं जिससे संपत्ति के विभाजन का प्रश्न ही नहीं उठता है। इस प्रकार संयुक्त संपत्ति का उपयोग व्यापार अथवा किसी धंधे में करके संपत्ति में और अधिक बढ़ोतरी की जा सकती है। संयुक्त संपत्ति होने के कारण अनावश्यक खर्चों पर भी रोक लगी है और कोई भी उस संपत्ति का मनमाना प्रयोग नहीं कर सकता। अतः संयुक्त परिवार में संपत्ति की सुरक्षा भी होती हैं।

    संयुक्त परिवार में सामर्थ्य के अनुसार ही कार्य दिए जाते हैं। इस प्रकार संयुक्त परिवार में पुरुष धन उपार्जन का कार्य करते हैं और स्त्रियां बालकों के पालन पोषण का कार्य तथा घर की देखभाल करती हैं‌और आर्थिक क्रियाओं में भी योगदान देती हैं।

 परन्तु इन सभी फायदों के बावजुद वर्तमान समय में संयुक्त परिवारों की जो स्थिति है वह अत्यन्द दयनीय और चिन्तनीय हो गयी है। आज संयुक्त परिवार में जो इसका निर्वाह करने और सामाजिक मर्यादा बचाने का प्रयास कर रहा है उसे मानसिक, आर्थिक, शारीरिक हर स्तर पर क्षति ही उठानी पड रही है वह सब कुछ खर्च करके भी परिवार के सदस्यों के नजर में मुर्ख के समान है अन्य सदस्यों से जैसे कोई मतलब ही नहीं रहता है, परिवार के बाकी सदस्य महज अपनी स्वार्थ पुर्ती में हैं । संयुक्त परिवार में महिलाओं की स्थिति और भी भयावह होती जा रही है भोजन बनाने तक के कार्य के लिए एक दुसरे का हाथ बँटाने के स्थान पर एक दुसरे से उम्मीद की जाती है किसी की तथाकथित तबीयत खराब हो जाती है तो कोई अपने शरीर से सदस्यों की गिनती करता है । घरों में आज सुनाने और करवाने को सब तैयार हैं मगर कोई सुनने और करने को राजी कोई नहीं है। रिश्तों की मजबूती के लिये हमें सुनाने और करवाने की ही नहीं अपितु सुनने और करने की आदत भी डालनी पड़ेगी।

          माना कि हम सही हैं मगर परिवारिक शान्ति बनाये रखने के लिये बेवजह सुन लेना भी कोई जुर्म नहीं बजाय इसके कि अपने को सही साबित करने के चक्कर में पूरे परिवार को ही अशांत बनाकर रख दिया जाये। अपनों को हराकर हम कभी नहीं जीत सकते, अपनों से हारकर ही हम उन्हें जीत सकते हैं। 

       लेकिन वर्तमान परिवेश में उस सदस्य को महिला या पुरुष जो हर तरह से त्याग करता आ रहा है परिवार के अन्य सदस्यों के नजर में वह मुर्ख समझा जाता है और उसकी इस भावना का पूर्णतया दुरुपयोग करते हुए उसका शोषण किया जाता है ।

यह लेखक का‌ निज विचार है गलती/अपवाद सम्भव है ।

सुविचार संग्रह (suvichar sngrah.com) पर समय दे कर पुरे लेख को पढने के लिए आप‌ सभी देवतुल्य पाठकों का‌ आभार एवं आर्शीवाद स्वरूप सुझाव व मार्गदर्शन की‌ आकांक्षा।

Thursday, April 6, 2023

दान

April 06, 2023 0 Comments









 सामान्यतया हम दान का मतलब किसी को धन देने से लगा लेते हैं। धन के अभाव में भी हम दान कर सकते हैं। तन और मन से किया गया दान भी उससे कम श्रेष्ठ नहीं है।

       किसी भूखे को भोजन, किसी प्यासे को पानी, गिरते हुए को संभाल लेना, किसी रोते बच्चे को गोद में उठा लेना, उसे हँसा देना , किसी अनपढ़ को साक्षर बना कर इस योग्य बना देना कि वह स्वयं हिसाब किताब कर सके और किसी वृद्ध का हाथ पकड़ उसके घर तक छोड़ देना यह भी किसी दान से कम नहीं है।

       हम किसी को उत्साहित कर दें, आत्मनिर्भर बना दें या साहसी बना दें, यह भी दान है। अगर हम किसी को उपहार का ना दे पायें तो मुस्कान का दान दें, आभार भी काफी है। किसी के भ्रम-भय का निवारण करना और उसके आत्म-उत्थान में सहयोग करना भी दान ही है।

हमने कभी विचार किया है कि हम मन्दिर में बहुत कुछ दान देते हैं, लेकिन क्या हमने अपना घमण्ड, अहंकार, बुराई, गन्दगी, लालच, दुसरों के प्रति दूर्व्यवहार, आदि कभी अर्पित किया है ? किसी दिन जाकर एक प्रतिज्ञा ली की आज मे झूठ बिल्कुल नहीं बोलूंगा, आज किसी को अपशब्द नही बोलूंगा ....... ?

सुविचार संग्रह पर यह लेख लेखक का निज विचार है। इसका उद्देश्य किसी की भावना को आहत करना नहीं है।

सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर समय देने के लिए आप सभी देव तुल्य पाठकों का आभार साथ ही मार्गदर्शन की आकांक्षा ।

Monday, February 13, 2023

१४ फरवरी/वेलेंटाइन डे:-

February 13, 2023 0 Comments








वेलेंटाइन डे - भारतीय संस्कृति के साथ युवाओं का चारित्रिक पतन

वेलेन्टाइन डे वह दिन है जिस दिन हमारे युवा मित्र(युवक/युवतियां) अर्थी निकालते हैं अपने माता-पिता/परिवार के संस्कारों और भारतीय संस्कृति का ।

ऐसे त्यौहार या उत्सव भारतीय नहीं हैं जो अपने परिवार और माता पिता के संस्कारों को बीच चौराहे पर नीलाम कर दें। यह पर्व आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य सभ्यता के बढते प्रभाव व भारतीय संस्कृति और सभ्यता के पतन को दर्शाता है ।

यह पर्व एक क्षण या अधिकाधिक एक दिन का आनन्द दे सकता है और इस आनन्द का परिणाम शायद गर्भपात की दवाई की बिक्री में वृद्धि,गैर कानुनी तरीके से गर्भपात करने वाले लोगों की आय में वृद्धि, कुछ महिनों बाद सडकों,नालों, कुडे के ढेरों में मिलने वाले अबोध बच्चों की संख्या में वृद्धि के रुप मे सामने आवे । यह भी सम्भव है युवतियों का अश्लील वीडियो बना उनसे रोज अनैतिक कार्य करवाया जाय फिर या तो वो ये काम करती रहेंगी या आत्महत्या कर लेंगी ।

             ऐसे युवक-युवतियां कभी भी अपने परिवार या अपने राष्ट्र का मान नही बड़ा पाएँगे।

        क्या इसे ही कहते हैं प्यार ?? थूकता हूँ ऐसे पर्व पर ऐसे प्यार पर। यह अंग्रेजो कि औलादो वाला त्यौहार है मै इसका पूर्ण रूप से बहिष्कार करता हूँ।

           मैं जानता हूँ यह लेख पढने के बाद कुछ लोग मुझ पर भी अंगुलियाँ उठाएंगे, मुझे असामाजिक या निरश कहेंगे, यह भी कहेंगे मैने कभी अपने जीवन में प्यार नहीं किया ।

             यदि भारतीय संस्कृति और युवाओं का चारित्रिक पतन करते पर्व का विरोध करना असामाजिकता और निरशता है तो मैं इसे स्वीकार करता हुँ, स्वीकार करता हुँ मैने अपने जीवन में कभी प्यार नहीं किया पाश्चात्यिकरण और आधुनिकीकरण के नाम चारित्रिक पतन से, लेकिन साथ ही यह भी कहता हुँ मैने प्यार किया है --

                मैने भी किया है प्यार अपने माता पिता से,उनसे प्राप्त संस्कारों से,अपने परिवार से,अपने धर्म से,अपनी संस्कृति से,अपने राष्ट्र से, अपने आराध्य से.......

 इस लेख में कुछ आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग है जिसके लिए क्षमा प्रार्थी हुँ लेकिन इस लेख का उद्देश्य अश्लीलता फैलाना, अराजकता फैलाना या किसी की भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है, फिर भी किसी को ऐसा प्रतीत होता है तो वह मुझे ब्लाक कर दे।

Friday, October 21, 2022

भौतिक संसाधन और संयम का सामन्जस्य है आवश्यक

October 21, 2022 0 Comments









 






अक्सर हम सब कहते सुनते हैं बड़ा संकट है, रोटी, कपड़ा, दवा और मकान जैसी अनिवार्य आवश्यकता भी पूर्ण नहीं हो पा रही हैं । बड़ी सहजता से कह देते हैं यह पुरा नहीं हो पा रहा, वह पुरा नहीं हो पा रहा है । कुछ हद तक कुछ व्यक्ति के साथ यह संभव है ऐसा भी हो, लेकिन बहुत बड़ी कमी यह है कि हम लोग अपना दोष स्वीकार नहीं करते न स्वीकार करने के लिए तैयार होते हैं । इससे भी कष्टकर और बड़ी समस्या यह है कि "जरूरतें/इच्छाएं" "आवश्यकता" से बहुत अधिक बढ़ गई हैं । इच्छाओं और अनैतिकता पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं रह गया है । मन और इन्द्रियाँ इतनी  स्वतंत्र व दल दल रुपी हो गयी हैं कि संयम रुपी प्रवृत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं। आय, सामग्री सब कुछ पहले से अधिक है पर क्या करें, हमारी इच्छाओं की भूख इतनी बढ़ गई हैं कि बढ़े हुए साधनों से  भी काम पूरे नहीं हो पा रहे हैं ।

 हमारी भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि हम लोग स्वयं पर "संयम" करना सीखें । केवल साधनों की तृष्णा बढ़ती रही और गुणों का विकास न हुआ तो उन्नति का मूल उद्देश्य नष्ट होकर दुर्भावनाओं का विकास होने लगेगा । साधन तो होंगे पर हम लोग सुखी नहीं होंगे ।

     संयम के साथ ही हमें यह उद्देश्य सामने रखना होगा कि परिवार के प्रत्येक सदस्य को जीवनरक्षक और निपुणता दायक आवश्यकता पहले पुर्ण हों । जब तक ये आवश्यकता न पुर्ण हो जाय, तब तक किसी प्रकार की आराम या विलासिता की वस्तुओं से हमें बचना होगा। यदि कोई अस्वस्थ है, तो पहले उसकी चिकित्सा होनी चाहिए। यदि कोई अध्ययनरत है तो उसकी व्यवस्था करना चाहिए। जब तक यह पुर्ण न हों तब तक कृत्रिम आवश्यकताओं से दूर रहने का प्रयत्न करना चाहिए।

प्रत्येक व्यक्ति को अपने खर्च पर गंभीरता से विचार कर कृत्रिम आवश्यकताओं,फैशन, मिथ्या प्रदर्शन, फिजूल खर्ची कम करनी चाहिए। आदतों को सुधारना ही श्रेयकर और स्थायी है। ऐशो आराम/ विलासिता के व्यय को कम करके बचे हुए रुपये को जीवन रक्षक अथवा निपुणता दायक या किसी टिकाऊ वस्तु पर व्यय करना चाहिए। बचत का रुपया बैंक में भविष्य के आकस्मिक खर्चों, विवाह शादियों, मकान, बीमारियों के लिए रखना चाहिए। प्रत्येक पैसा समझदारी से जागरुक रह कर भविष्य पर विश्वास न करते हुए खर्च करने से ही प्रत्येक व्यक्ति अधिकतम संतोष और सुख प्राप्त कर सकता है।

आमदनी से नहीं, हमारी आर्थिक स्थिति हमारे खर्च से नापी जाती है। यदि खर्च आमदनी से अधिक हुआ तो बड़ी आय से भी कोई लाभ नहीं होगा ।

हमें दुरदर्शीता पुर्वक अपनी आवश्यकताओं और खर्चों का पहले से ही बजट तैयार करना चाहिए फिर खर्च करना चाहिए यदि हमने ऐसा नहीं किया तो आवश्यकता पड़ने पर दुसरों के सामने हाथ फैलाकर मांगने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं होगा जिससे दुसरों के साथ अपनी नजरों में भी गिरने से हमें कोई नहीं बचा सकता मांगने पर यह भी आवश्यक नहीं कि सामने वाला हमारी मदद करेगा ही मदद न करने की स्थिति में हमारे पास अवसाद, आत्मग्लानि, पश्च्याताप के अतिरिक्त हमारे हाथ कुछ नहीं आयेगा।

किसी कवि ने सही कहा है-

कौडी कौडी जोड़ि कै, निधन होत धनवान।

अक्षर अक्षर के पढ़े, मूरख होत सुजान॥

           "यह लेख मेरा निज अनुभव है इसका अपवाद सम्भव है।"

सुविचार संग्रह suvicharsangrah.com पर समय देने के लिए आप‌ सभी देवतुल्य पाठकों का हृदय तल से आभार।

Friday, October 7, 2022

बुज़ुर्गों का अकेलापन ।

October 07, 2022 0 Comments









अकेलापन क्या होता है, अकेले रहने पर कैसा महसूस होता है क्या हमने/आज की युवा पीढ़ी ने कभी सोचा है या जानने की कोशिश की है??

शायद नहीं!

यदि अकेलेपन और उसके दर्द/एहसास को समझना है तो कभी घर के उस अकेले बुज़ुर्ग से पूँछना होगा, जिसे पूरी रात नींद नहीं आती है और हम पूरी रात आराम से सोते हैं और सुबह उठकर बड़े आराम से उन्हें कहते हैं कि पूरी रात नहीं सोते हैं, पता नहीं क्या करते रहते हैं?

हमारे युवा और मजबूत हाथ जिन जिम्मेदारियों को निभाते व सँभालते अभी भी कँपकँपाते हैं उन बूढ़े हाथों से हमें पूँछना चाहिए कैसे वो आज भी बेझिझक और बेहिचक उन ज़िम्मेदारियों को खुशी-खुशी उठाते हैं ।

हमारे बीच मे से अधिकांश लोग ऐसे होंगे जिनके पास समय ही नहीं होता है अपने बुज़र्गो से बात करने के लिए, क्योंकि हमारे दृष्टिकोण से तो वे पुराने ज़माने और पुराने ख्याल के हैं और बेवजह की सलाह देते हैं साथ ही वो कमजोर भी हो चले हैं इसलिए उनसे क्या और क्यों बात करनी ???

यही नहीं कुछ लोग तो अपने बड़े -बुजुर्गों को धमका कर या घूर कर चुप भी करा देते हैं ।

वो बूढे माँ-बाप जो खुशी-खुशी पूरी उम्र हमारी बक बक सुनते है, उन्हीं से दो बात करने के लिए अब हमारे पास समय नहीं होता है क्योंकि हम ठहरे युवा और आधुनिक और उन्हें हमसे वही घिसी-पिटी बातें जो करनी हैं ।

हमें सोचना चाहिए बुज़र्ग किससे अपने मन की बात करें, किससे अपनी पीड़ा बतायें ? वो तो २४ घंटे खाली हैं, कहाँ जायें क्योंकि उम्र ज्यादा होने से वो ठीक से चल भी नहीं सकते । कौन उनका सहारा बने ?? क्योंकि वो दूसरों पर निर्भर हो चुके हैं।

   उनके मरने के बाद हम पूजा पाठ करवाते हैं, गाय, कुत्ता कौआ आदि को ग्रास निकालते हैं, बड़े कार्यक्रम का आयोजन करते है, सभी को बुलाते हैं, अच्छे से अच्छा खाना खिलाने का प्रयास करते हैं और पूरे दिन उस बुज़र्ग के लिए बैठते हैं, काश उनके जीते जी हम उनको अच्छे से अच्छा खिलाने का प्रयास करते हम उनके पास बैठते तो उनकी आत्मा तृप्त होती  और कुछ दिन अधिक शायद जीवित रहते ।

Saturday, June 4, 2022

सूने होते मकान, मोहल्ले, गाँव, कस्बे

June 04, 2022 0 Comments


सूने होते गाँव, कस्बों के मकान, मोहल्लों का जिम्मेदार कौन आइये लेखक का विचार समझने का प्रयास करते हैं सुविचार संग्रह ( suvicharsangrah.com ) पर ......

         शायद हमने कभी ध्यान से देखा ही नहीं या फिर हमारा गली मुहल्ले से इतनी आवश्यकता नहीं पड़ती या हम कोई रिश्ता ही नहीं रखते गली मुहल्ले या अपने गाँव से , हम बस तेजी से अपने दो पहिया या चार पहिया वाहन से सीधे अपने काम पर निकल जाते है और वापस अपने घर आ जाते है, इसलिए शायद हमारी सुने होते मकानों, मोहल्लों और गाँवों पर नज़र जा नही पाती है या फिर हम खुद अपना जन्म स्थान छोड़कर किसी बड़े शहर में आकर बस गए हैं, तो हमें एहसास ही नहीं कि कब हमारे मोहल्ले के मकान सुने हो गए, उनमे सिर्फ बूढ़े माँ बाप पड़े हैं और फिर कब धीरे धीरे ऐसे मकानों से मोहल्ले सुने होते चले गये, इसका जायज़ा कभी लिया जाय की कितने घरो में अगली पीढ़ी के बच्चे रह रहे हैं और कितने बाहर निकलकर बड़े शहरों में जाकर बस गए हैं, कभी हम एक बार उन गली मोहल्लों से पैदल निकलने की कोशिश करें जहां से हम बचपन मे स्कूल जाते समय या दोस्तो के संग हुडदंग बाजी करते हुए निकलते थे, तिरछी नज़रो से झांकने पर लगभग हर घर से चुपचाप सी सुनसानीयत मिलती है, न कोई आवाज़, न बच्चों का शोर, बस किसी किसी घर के बाहर या खिड़की में आते जाते लोगों को ताकते बूढ़े जरूर मिल जाते हैं।

        इस भौतिकवादी और अर्थ प्रधान युग मे हर व्यक्ति चाहता है कि हमारे बच्चे अच्छे से अच्छा पढ़े, हमें लगता है या फिर दूसरे लोग ऐसा लगवाने लगते हैं कि छोटे शहर या कस्बे में पढ़ने से बच्चे का भविष्य खराब हो जाएगा या फिर बच्चा बिगड़ जाएगा। बस यहीं से बच्चे निकल जाते हैं बड़े शहरों के हास्टलों में। अब भले ही दिल्ली और उस छोटे शहर में उसी क्लास का पाठ्यक्रम और किताबें वही हो मगर मानसिक दवाब सा आ जाता है बड़े शहर में पढ़ने भेजने का । हालांकि बाहर भेजने पर भी मुश्किल से 1%बच्चे आई आई टी, पी एम टी  आदि  निकाल पाते हैं और फिर मां बाप बाकी बच्चो का पेमेंट सीट पर इंजीनियरिंग, मेडिकल या फिर बिज़नेस मैनेजमेंट में दाखिला कराते हैं । ३-४ वर्ष बाहर पढ़ते पढ़ते बच्चे बड़े शहरों के माहौल में रच बस जाते हैं और फिर वहीं अपने जीविकोपार्जन का साधन ढूंढ लेते हैं। अब त्योहारों पर घर आते हैं माँ बाप के पास। माँ बाप भी सभी को अपने बच्चों के बारे में गर्व से बताते हैं  उनके वेतन आदि के बारे में । कुछ साल .....मां बाप बूढ़े हो जाते हैं और बच्चे लोन लेकर बड़े शहरों में फ्लैट ले लेते हैं। अब अपना फ्लैट है तो त्योहारों पर भी आना जान बंद। मात्र किसी आवश्यक शादी विवाह या किसी आयोजन में आते जाते हैं । अब शादी विवाह भी बड़े विवाह भवन में होते है तो मुहल्ले में और घर जाने की भी ज्यादा आवश्यकता  पड़ती ही नही है। हाँ शादी विवाह में कोई मुहल्ले वाला पूछ भी ले कि भाई अब कम आते जाते हो तो छोटे शहर,  छोटे माहौल और बच्चों की पढ़ाई का बहाना देकर बोल देते है कि अब यहां रखा ही क्या है।

      खैर,  बेटे बहुओं के साथ फ्लैट में शहर मे रहने लगते है, अब फ्लैट में तो इतनी जगह होती नहीं और ना ही अब इच्छा ही रहती है की बूढ़े खांसते बीमार माँ बाप को अपने साथ मे रखा जाए। बेचारे पड़े रहते हैं अपने बनाये या पैतृक मकानों में । आज के वातावरण में तो अब कोई बच्चा बागवान पिक्चर की तरह मां बाप को आधा - आधा रखने को भी तैयार नहीं है। अब बस घर खाली खाली, मकान खाली खाली और धीरे धीरे मुहल्ला और गाँव खाली हो रहा है। अब ऐसे में छोटे शहरों में कुकुरमुत्तो की तरह उग रहे हैं "प्रॉपर्टी डीलर" जिनकी गिद्ध जैसी पैनी निगाह इन खाली होते मकानों पर है और ये प्रॉपर्टी डीलर सबसे ज्यादा ज्ञान बांटते हैं कि छोटे शहर में रखा ही क्या है?? साथ ही ये किसी बड़े लाला को इन खाली होते मकानों में मार्केट और गोदामों का सुनहरा सपना और भविष्य दिखाने लगते हैं। बाबू जी और अम्मा जी को भी बेटे बहु के साथ बड़े शहर में रहकर आराम से मज़ा लेने का सुनहरे सपने दिखाकर मकान बेचने को तैयार कर लेते हैं। गाँवों और छोटे शहरों में अति सम्पन्न लोग खुद अपने ऐसे पड़ोसी के मकान पर नज़र रखते है और खरीद लेते है कि मार्केट बनाएंगे या गोदाम, जबकि खुद का बेटा छोड़कर किसी बड़े शहर की बड़ी कंपनी में काम कर रहा होता है इसलिए हम खुद भी इसमें नही बस पाएंगे।

     हर दूसरा घर, हर तीसरा या चौथा परिवार......सभी के बच्चे बाहर निकल गए है। वहीं बड़े शहर में मकान ले लिये हैं, बच्चे पढ़ रहे है.....अब वो वापस नही आएंगे। छोटे शहर में रखा ही क्या है.....अंग्रेज़ी मध्यम स्कूल नहीं है, हॉबी क्लासेज नहीं है, IIT/PMT की कोचिंग नहीं है, मॉल नहीं है, माहौल नहीं है.......कुछ नहीं है, आखिर इनके बिना जीवन कैसे चलेगा। यदि UPSC CIVIL SERVICES का रिजल्ट उठा कर देखा जाय तो सबसे ज्यादा लोग ऐसे छोटे शहरों से ही मिलेंगे। मात्र मन का वहम है।

       मेरे जैसे भावनात्मक/ मुर्ख लोगों के मन के किसी कोने में होता है कि भले ही कहीं जमीन खरीद लें मगर रहें अपने इसी छोटे शहर में अपने लोगो के बीच में पर जैसे ही मन की बात रखते है, तथाकथित बुद्धिजीवी पड़ोसी समझाने आ जाते है कि "अरे पागल हो गए हो, यहाँ बसोगे, यहां क्या रखा है"? वो भी गिद्ध की तरह मकान बिकने के ही प्रतीक्षा करते है, बस सीधे कह नहीं सकते। 

         अब ये मॉल, ये बड़े स्कूल, ये बड़े टॉवर वाले मकान.....सिर्फ इनसे ज़िन्दगी तो नहीं चलेगी। एक वक्त (यानी वृद्धावस्था) ऐसा आता है जब हमें अपनों की आवश्यकता होती है और ये अपने हमें छोटे शहरों या गांवो में ही मिल सकते हैं। बडे शहरों में तो शव यात्रा चार कंधो पर नहीं बल्कि किसी गाडी से ले जाना पडेगा, सीधे शमशान, शायद एक दो रिश्तेदार बस.....और सब समाप्त। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमे कोरोना काल के दो वर्षों में देख लिया बड़े शहरों में भोजन तक को पुछने वाले नहीं थे अपने गाँव कस्बों में दो वक्त का भोजन तो मिला। 

             कुछ दशक पहले लोहार, स्वर्णकार, दर्जी, मोची, कुम्हार, राजगीर कोई भूखा नहीं रहता था सबके पास रोजगार होता था।

  ये खाली होते मकान, ये सुने होते मुहल्ले......इन्हें सिर्फ प्रॉपर्टी की नज़र से देखना हमें बन्द करना होगा, इन्हें जीवन की खोती जीवंतता की नज़र से देखना होगा। हम पड़ोसी विहीन हो रहे है। हम वीरान हो रहे है...….  जन्मस्थानों के प्रति मोह जगृत करना होगा, प्रेम जगाना होगा।

           यह लेखक का निज विचार है इस विचार का अपवाद सम्भव है या यह भी सम्भव है कि यह विचार ही गलत हो।

   ‌‌‌‌       सुविचार संग्रह ( suvicharsangrah.com) पर समय देकर इस लेख को पढ़ने वाले देव तुल्य पाठकों का ह्रदय तल से आभार एवं आर्शीवाद स्वरूप सुझाव/टिप्पणी की आकांक्षा ।

Monday, May 30, 2022

प्रेम

May 30, 2022 0 Comments












प्रेम को शायद परिभाषित तो नहीं किया जा सकता, यह भी कहा जा सकता है कि प्रेम को परिभाषित करने की योग्यता लेखक (प्रदीप कुमार पाण्डेय) में नहीं है परन्तु सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर इस लेख के माध्यम से प्रेम को समझने का प्रयास लेखक द्वारा किया गया है।

    प्रेम मात्र दो अक्षर का अत्यंत छोटा शब्द है लेकिन जितना छोटा है यह उतनी ही गहराई अपने अन्दर समाहित किया है । प्रेम एक अद्भुत और अलौकिक शक्ति है । प्रेम के अभाव में अच्छी से अच्छी सामग्री भी मनुष्य को जरा सा भी प्रसन्नता प्रदान नहीं कर सकती । प्रेम ही है जिसके कारण माता पिता स्वयं अत्यंत कष्ट सहन करके भी अपनी सन्तान को सुख देने का प्रयास करते हैं।

प्रेम अन्तर्मन/आत्मा का विषय है, बुद्धि का नहीं है परन्तु दुर्भाग्य है कि वर्तमान परिवेश में मनुष्य ने प्रेम को बुद्धि का विषय बना लिया है, वासना और आवश्यकता को ही प्रेम का नाम मनुष्य देने लगे हैं । जिस प्रकार हर इन्सान का जीवन जीने तरीका, जीवन के अपने खट्ठे मीठे अनुभव और जीवन के प्रति अपना दृष्टिकोण अलग होने के कारण हम जीवन को परिभाषित नहीं कर सकते ठीक उसी प्रकार प्रेम को भी शब्दों की सीमा में मनुष्य बाँधा नहीं सकता है ।

  प्रेम के लिए कोई भी कारण नहीं होता जिस प्रेम का कारण बताया जा सके, वह प्रेम हो ही नहीं सकता है।

प्रेम किसी के लिए आदत जैसा है, तो किसी के लिए आवश्यकता जैसा। प्रेम किसी के लिए जिम्मेदारी है, तो किसी के लिए वफादारी। किसी का प्रेम लालसा है, तो किसी का वासना। कोई स्वयं की सुविधा देखकर प्रेम करता है, तो कोई आपसी योग्यता देखकर। किसी का प्रेम मोह हैं, तो किसी का स्वार्थ। अड़चन यही है कि किसी का भी प्रेम, 'प्रेम' जैसा नहीं रह गया है। इन सबमें प्रेम की एक झलक मिलती है। सब प्रेम के करीब तो ले जाते हैं, पर 'प्रेम' हो नहीं पाता। ऐसा प्रेम, सम्बन्धो से जुड़कर, शब्दों में ढलकर खण्डित हो जाता है, पर प्रेम हो नहीं पाता। सच तो यह है कि अब मनुष्य सब कुछ करा रहा है, मात्र प्रेम नहीं कर पा रहा है। यही कारण है, हमने प्रेम को अनेक नाम दिया है और असफल हुए हैं। 

प्रेम के साथ क्यों का कोई भी संबंध नहीं है। प्रेम कोई व्यवसाय नहीं है। प्रेम के भीतर 'हेतु' शब्द होता ही नहीं। प्रेम अकारण भाव—दशा है। न कोई शर्त है, न कोई सीमा है। 'क्यों' का पता चल जाए, तो प्रेम का रहस्य ही समाप्त हो गया। प्रेम का कभी भी शास्त्र नहीं बन पाता। प्रेम के गीत हो सकते हैं। 

प्रेम का कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धांत नहीं।

प्रेम मस्तिष्क की बात नहीं है। 

मस्तिष्क की होती तो क्यों का उत्तर मिल जाता। प्रेम हृदय की बात है। वहाँ क्यों का कभी प्रवेश ही नहीं होता है । क्योंकि, क्यों है मस्तिष्क का प्रश्न; और प्रेम है हृदय का आविर्भाव। इन दोनों का कहीं मिलना नहीं होता। इसलिए जब प्रेम होता है, तो बस होता है— बेबूझ, रहस्यपूर्ण। अज्ञात ही नहीं—अज्ञेय भी । इसीलिए तो किसी ने कहा कि प्रेम परमात्मा है। इस पृथ्वी पर प्रेम एक 

अकेला अनुभव है, जो परमात्मा के संबंध में थोड़ा इंगित करता है। 

ऐसे ही परमात्मा हैं—अकारण, अहैतुक, रहस्यपूर्ण। 

ऐसे ही परमात्मा हैं जिसका कि हम आर—पार न प्राप्त कर सके हैं न प्राप्त‌ कर सकेंगे। प्रेम परमात्मा की पहली झलक है।

प्रेम....पारस है, जिसे छू ले, उसे कुंदन कर दे!!!

प्रेम पूजा है जिसे हो जाएँ, उसे ईश्वर कर दे !!!

प्रेम की मंजिल नहीं, जिसे हो जाएँ उसे मुसाफिर कर दे!!!

प्रेम तपस्या है जिसे हो जाएँ, उसे फकीर कर दे !!!

प्रेम गजब है, जिसे हो जाएँ उसे अजब कर दे...!!!

सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर समय देने के लिए आप सभी देवतुल्य पाठकगण का हृदय से आभार एवं लेखनी और विचारों में भावी सुद्धता एवं सुधार हेतु टिप्पणी/सुझाव की आकांक्षा ।

Wednesday, March 23, 2022

महाभारत के पात्रों से प्राप्त शिक्षा

March 23, 2022 0 Comments


 यदि हम शिक्षा ग्रहण करना चाहें तो हमारी प्रत्येक गलती, हमारे जीवन और समाज का हर एक व्यक्ति चाहे वह कितना भी बुरा हो हमें कोई न कोई शिक्षा देने की क्षमता रखता है आवश्यकता मात्र है हमें अपने अन्दर सकारात्मक दृष्टिकोण और सीखने की इच्छा जागृत करने की ।
          सरल शब्दों में कहें तो हमारे धार्मिक ग्रन्थ, समाज, फिल्म, जीवन के नायक/अच्छे व्यक्ति ही नहीं अपितु खलनायक भी हमें बहुत बड़ी सीख देते हैं बस हमें सीखने की दृष्टि विकसित करनी होगी।
          सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर एक लेख प्रकाशित हुआ था रामायण के खलनायकों से ग्रहण करने योग्य शिक्षा पर और आज इस लेख के माध्यम से सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर हम एक दृष्टि डालेंगे महाभारत के कुछ पात्रों पर जिसमें नायक और खलनायक दोनों ही सम्मिलित किये गये हैं ।
                १. भीष्म पितामहः :- कभी भावनाओं के अधिन ऐसा वचन न लें कि हमको अधर्मियों के आगे समर्पण करना पड़े। 
                 २. धृतराष्ट्र :- यदि हम महाभारत का अध्ययन नहीं किये हैं यदि दूरदर्शन पर प्रसारित महाभारत धारावाहिक का थोड़ा भी अंश देखे हैं या धृतराष्ट्र के बारे में अंश मात्र भी जानते हैं तो उनके जीवन और पात्र से एक बहुत बड़ी शिक्षा हमें यह मिलती है कि --  यदि हमने अपनी संतानों की नाजायज माँग और हठ को समय से नियंत्रित नहीं किया तो एक समय ऐसा आयेगा जब हम खुद को हम इतना असहाय पायेंगे  कि चाह कर भी सत्य की दिशा में कुछ नहीं कर पायेंगे। इसके साथ ही धृतराष्ट्र के जीवन से दुसरी अत्यंत महत्वपूर्ण शिक्षा मिलती है कि -- अंध व्यक्तित्व अर्थात केवल नेत्रों से ही दृष्टिहीन नहीं बल्कि मुद्रा, मदिरा, अज्ञान, मोह और काम में अंधे व्यक्ति के हाथ में सत्ता भी विनाश की ओर ले जाती है ।
              ३. कर्ण :- हम कितने भी ज्ञानी औए शक्तिशाली क्यों ना हों परन्तु यदि अधर्म के साथ रहेंगे , तो हमारी विद्या, अस्त्र - शस्त्र, शक्ति और वरदान सब असफल/व्यर्थ हो जायेगा ।
              ४. अश्वत्थामा :- हम इतने महत्वाकांक्षी न बन जायें कि विद्या का दुरुपयोग कर स्वयं सर्वनाश को आमंत्रण दे दें ।
              ५. दुर्योधन :- संपत्ति, तालत और सत्ता का दुरुपयोग और दुराचारियों के साथ का परिणाम अंततः स्वयं का सर्वनाश ही है।
              ६. शकुनि :- प्रत्येक कार्य में छल, कपट, व प्रपंच रच कर हम सदैव सफल नहीं हो सकते ।
               ७. कृष्ण :- धर्म, सत्य और मानवता की रक्षा के लिए उठाया गया हर कदम सही है। (वर्तमान समय में कानून अपने हाथ में अवश्य ही लिया नहीं जा सकता।)
                ८. युधिष्ठिर :-  यदि हम नीति, धर्म व कर्म का सफलता व ईमानदारी से पालन करें तो विश्व की कोई भी शक्ति हमें पराजित नहीं कर सकती ।
              ९. अर्जुन :-  व्यक्ति की  विद्या यदि विवेक से बँधी  हो तो विजयश्री का ताज मिलना सुनिश्चित है । 
            
            सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर प्रकाशित यह लेख लेखक का व्यक्तिगत विचार है, इसका विरोधाभास/अपवाद वर्तमान समय में सम्भव है ।
            सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर अपना अमूल्य समय देने के लिए आप सभी देवतुल्यों का आभार एवं सुझाव व मार्गदर्शन की आकांक्षा ।🙏🙏