वर्तमान परिवेश में भटकते बच्चे/युवा
वर्तमान परिवेश में बालक और युवा भटकाव/बर्बादी के रास्ते पर बढते जा रहे हैं । बालक और युवा गलत रास्ते अपना कर बिगडते जा रहे हैं । जितनी मुझे जानकारी है उसके अनुसार पहले बाल्यावस्था और युवावस्था में यदि बीमारियां होती भी थीं तो शारीरिक होती थीं लेकिन इस समय इन दोनों अवस्थाओं में बीमारियां जितनी शारीरिक हो रहीं हैं उससे कहीं बहुत ज्यादा मानसिक हो रही हैं।
इस लेख को आगे बढायें उससे पहले हम संक्षिप्त रुप से पहले बाल्यावस्था और युवावस्था और वर्तमान परिवेश में होने वाली उनकी प्रमुख समस्याओं को जान लेते हैं।
बाल्यावस्था--
यह अवस्था शारीरिक व मानसिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस अवस्था में २ से १२ वर्ष तक के बच्चे आते हैं।इस अवस्था में बच्चों के अन्दर जिज्ञासा की प्रवृत्ति प्रवल होती है।
युवावस्था--
यह अवस्था १३ वर्ष से शुरु होकर २१ वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में अनेक शारीरिक व मानसिक उथल पुथल होने के साथ संवेगात्मक अस्थिरता बनी रहती है। इस अवस्था में शारीरिक व मानसिक परिवर्तन के कारण सामजिक, नैतिक व संवेगात्मक जीवन का स्वरूप बिल्कुल परिवर्तित हो जाता है।
(अवस्थाओं के बारे विभिन्न विद्वानों के अलग अलग विचार हैं।)
इन दोनों अवस्थाओं की वर्तमान में होनें वाली प्रमुख समस्याएं इस प्रकार हैं...
इन वर्गों में जो प्रमुख समस्याएं देखने में आ रही हैं वे-- पढ़ाई में मन न लगना, चिड़चिड़ापन, भूख न लगना,नींद कम आना, असंतुलित शारीरिक विकास, तेज की कमी आदि हैं ।
इन लक्षणों का दुष्प्रभाव:
ये लक्षण आगे चलकर युवक/युवतियों को अकेलेपन, लव जिहाद, नशा, चरित्रहीनता, अवसाद, आत्महत्या आदि की तरफ धकेल देते हैं।
निश्चय ही ये समस्याएं दूरगामी प्रभाव डालने वाली हैं।
इन सब समस्याओं के पीछे परोक्ष या प्रत्यक्ष रुप से हमारा पाश्चात्य सभ्यता की तरफ तेजी से बढता आकर्षण, हमारी भौतिकवादिता, एकाकी परिवार की भावना, माता पिता और अभिभावकों की बच्चों के प्रति बढती उदासीनता के साथ कहीं न कहीं तेजी से बढता सोशल मीडिया का प्रयोग और हमारी अर्थप्रधान भावना भी जिम्मेदार है।
सोशल मीडिया एवं भौतिक सुखों लोलुपता के लिए बढती धन की लालसा बच्चों और अभिभावकों के बीच दूरियों को बहुत ज्यादा बढ़ा दिया है। हम पैसे और भौतिक सुखो के पीछे इतने दिवाने होते जा रहे हैं कि परिवार के पुरुष और महिला सब धनोपार्जन में लग जा रहे हैं, सोशल मीडिया के द्वारा बाहरी दुनिया से बात करने में हम इतने व्यस्त हो जाते हैं कि अपने बच्चों के लिए हमारे पास समय ही नहीं होता है।
पहले संयुक्त परिवारों में बच्चे और युवा दादा-दादी, बुआ,चाचा आदि के साथ संवाद उनकी सेवा करते हुए, कहानी सुनते हुए, बालों में कंघी करवाते हुए स्वतः ही स्थापित कर लेते थे और हमारे बड़े बुजुर्गों का अनुभवी निरिक्षण बच्चों को भटकने नहीं देता था।
लेकिन अब एकाकी परिवारों में पले हुए बच्चें इन समस्याओं से अधिक ग्रस्त होते जा रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में बच्चे और युवा सही मार्गदर्शन व संस्कार ही नहीं पा रहे हैं।
ऐसी परिस्थितियों में बच्चे भी अपने मित्रों के संपर्क में अधिक रहने लगे हैं। इन आयु में अच्छे-बुरे की पहचान न होने से अक्सर गलत मार्ग पर चलते जा रहे हैं।
वर्तमान समय में इन्हीं समस्याओं से ग्रस्त युवा अच्छे गृहस्थ भी नहीं बन पा रहे हैं, जिससे परस्पर तनाव, झगड़ा, तलाक आदि भी अधिक संख्या में देखे जा रहे हैं।
इसलिए आवश्यक है कि हम अपने बच्चों से सकारात्मक संवाद (आवस्यकतानुसार मित्रवत) सदैव करते रहें। यही संवाद इन अवस्थाओं में हमारी सन्तानों को अकेलेपन से बचाएगा।
इन समस्याओं का हमारी संतानों/ वर्तमान और भावी पीढ़ियों पर दूरगामी दुष्परिणाम पड़ रहा है इसलिए हमें अब सावधान होना होगा, हमें यह गम्भीरता से स्वीकार करना होगा कि हमारी संतान ही हमारी सबसे बड़ी पूंजी हैं। इन्हें सही मार्ग पर चलाना हमारी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है।
(यह निज विचार है इसके प्रत्येक वाक्य का अपवाद/विरोध सम्भव है। इस विषय को मनोविज्ञान के ज्ञाता/मनोचिकित्सक बिल्कुल स्पष्ट कर सकते हैं।)
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