इस धरा पर प्रत्येक व्यक्ति रिश्तों की डोर से बंधा है, ये रिश्ते रक्त के भी हैं और भावनाओं के भी। यदि हम ईमानदारी से अवलोकन करें तो कोई भी रिश्ता पुर्णतया वास्तविक नहीं मिलेगा, प्रत्येक रिश्ते के पीछे कोई न कोई स्वार्थ अवश्य छिपा होगा। केवल उस पिता परमात्मा का हमसे रिश्ता वास्तविक और निःस्वार्थ है। हम सभी अनेक व्यक्तियों से जुड़े हैं लेकिन प्रत्येक व्यक्ति का अपने जीवन के कार्यों की प्राथमिकता और उसकी क्रमबद्धता की तरह ही रिश्तों की भी एक आन्तरिक प्राथमिकता आधारित क्रमबद्ध सूची होती उसी के आधार पर वह व्यवहार करता है। यही सूची व्यक्ति का व्यक्ति के प्रति व्यवहार में अन्तर उत्पन्न करती है। यही सूची प्रत्येक व्यक्ति के प्रति उसके आन्तरिक व्यवहार में परिवर्तन लाती है। इसी सूची के आधार पर व्यक्ति प्यार, दुलार,सम्मान और अपनत्व की मात्रा का निर्धारण करता है। यह आवश्यक नहीं है कि हमारे लिए जो व्यक्ति भावनात्मक रुप से विशिष्ट हो जिसे हम अधिक प्यार और सम्मान देते हों उसके लिए भी हम उतने ही विशिष्ट हों और वह भी हमें उतना ही प्रेम और सम्मान दे।
अधिकांशतः जब एक गर्भ से सन्तानों को जन्म देने वाली 'माँ' और अपने खुन पसीने की कमाई से भरण पोषण करने वाले 'पिता' का आकर्षण भी थोड़ा सा ही सही अपने किसी एक सन्तान प्रति अधिक होता है (इसका आशय माता की ममता और पिता के स्नेह पर सन्देह उत्पन्न करना या उनके सम्मान में कमी करना नहीं है।) तो हमारा अन्य लोगों से समानता के व्यवहार का उम्मीद करना ही व्यर्थ है।
हमारे बीच के परस्पर प्राथमिकता का यह अन्तर और हमारी व्यवहार में समानता की उम्मीद ही हमें दुःखी करती है/रुलाती है।
यदि हम किसी किसी के लिए कुछ करते हैं, किसी को प्यार, दुलार और सम्मान देते हैं तो उससे कोई उम्मीद न रखें क्यों कि हमारे कर्मों का सही प्रति फल परम् पिता परमेश्वर के अतिरिक्त हमें कोई दे ही नहीं सकता इसलिए हम उसी से उम्मीद करें उसी को हृदय में स्थान दें यही हमारे लिए हितकर होगा।
यदि हम ऐसा नहीं कर सकते तो कम से कम हम इतना करें कि हम प्रत्येक व्यक्ति को उसके द्वारा प्रदान किये गये सम्मान, प्यार और दुलार के आधार पर ही प्यार, दुलार, सम्मान और हृदय में स्थान दें अन्यथा वह हमें हमेशा रुलायेगा या हम खुद रोते रहेंगें।
अधिकांशतः जब एक गर्भ से सन्तानों को जन्म देने वाली 'माँ' और अपने खुन पसीने की कमाई से भरण पोषण करने वाले 'पिता' का आकर्षण भी थोड़ा सा ही सही अपने किसी एक सन्तान प्रति अधिक होता है (इसका आशय माता की ममता और पिता के स्नेह पर सन्देह उत्पन्न करना या उनके सम्मान में कमी करना नहीं है।) तो हमारा अन्य लोगों से समानता के व्यवहार का उम्मीद करना ही व्यर्थ है।
हमारे बीच के परस्पर प्राथमिकता का यह अन्तर और हमारी व्यवहार में समानता की उम्मीद ही हमें दुःखी करती है/रुलाती है।
यदि हम किसी किसी के लिए कुछ करते हैं, किसी को प्यार, दुलार और सम्मान देते हैं तो उससे कोई उम्मीद न रखें क्यों कि हमारे कर्मों का सही प्रति फल परम् पिता परमेश्वर के अतिरिक्त हमें कोई दे ही नहीं सकता इसलिए हम उसी से उम्मीद करें उसी को हृदय में स्थान दें यही हमारे लिए हितकर होगा।
यदि हम ऐसा नहीं कर सकते तो कम से कम हम इतना करें कि हम प्रत्येक व्यक्ति को उसके द्वारा प्रदान किये गये सम्मान, प्यार और दुलार के आधार पर ही प्यार, दुलार, सम्मान और हृदय में स्थान दें अन्यथा वह हमें हमेशा रुलायेगा या हम खुद रोते रहेंगें।
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