आज का मनुष्य अपने दुःख और असफलता से उतना दुःखी नहीं है जितना दुसरे के सुख और सफलता से दुःखी है । दुसरों का सुख और सफलता देख कर अधिकांश लोगों के मन में उनके जैसा परिश्रम और कर्म करने की भावना जागृत न होकर ईष्या की भावना प्रबल हो जाती है।
हम अपने पसन्द के स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ को भी हफ्ते दस दिन चौबिसो घण्टे अपने साथ सुरक्षित और सहजता से लेकर नहीं घुम सकते हैं, उसमें से दुर्गन्ध उत्पन्न होने लगेगी और निःसन्देह हमें बोझ महसूस होगा,फिर जिस व्यक्ति से हम ईष्या द्वेष अपने मन में २४ घण्टे रखे रहते हैं उसका बोझ कितना हमारे दिल दिमाग पर रहता है उसे हमें समझना चाहिए और इस बोझ को हम आजीवन ढोते रहते हैं तो हमें यह समझना चाहिए कि इस बोझ का हमाए मन,मस्तिष्क और शरीर पर कितना दुष्प्रभाव पड़ता है ।
द्वेष और ईष्या के इस बोझ से हमारा जीवन और मन दुर्गन्ध युक्त और बोझिल बना हुआ है इसलिए हमें अपने मन से इन दुर्भावनाओं को निकाल कर प्रेम, सहयोग, सम्मान को स्थान देकर अपने मन को निर्मल,पावन,सुगन्धित और हल्का बनाने का प्रयास करना चाहिए।
हमें सदैव जो प्राप्त है वह पर्याप्त है की भावना के साथ अपने कर्म को पुर्ण निष्ठा और ईमानदारी से करते हुए प्रसन्न रहने का प्रयास करना चाहिए ।
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