युवाओं को देश का भावी कर्णधार कहा जाता है। आज का भारत युवा भारत है। युवाओं की अधिकांश संख्या बेरोजगारी की मार झेल रहा है । प्रत्येक युवा अपने लिए तो सपने देखता ही है साथ ही साथ मातृभूमि के लिए भी सपने संजोये रहता है।
बचपन में माता पिता और अभिभावक द्वारा सीखाया जाता है खुब मन लगा कर पढो तो बड़े होने पर अच्छी नौकरी मिलेगी । माता पिता अपने बच्चे पर पढ़ाई के लिए अपनी खुशियाँ मार कर पानी की तरह पैसे बहाते हैं। लेकिन समय के साथ युवा होते बच्चों के साथ उनके अभिभावकों के भी सपने टुटने लगते हैं । बच्चे स्नातक करते समय ही नौकरी प्राप्ति के लिए तैयारी शुरु करता है लेकिन दुर्भाग्यवश अधिकांश को नौकरी नहीं मिलती लगे हाथ परास्नातक करता है लेकिन नौकरी फिर भी हाथ न आयी, सिमित समय के साथ उम्र निकल जाता है और नौकरी नहीं मिलती ।
अब एक नया दौर शुरु होता है जब अभिभावक द्वारा इन युवाओं को कोसा जाने लगता है-- नालायक है पढा नहीं, मेहनत नहीं किया लेकिन अधिकांश अभिभावकों को यह अंदाजा कम होता है कि कमी बच्चे में कम हमारे व्यवस्था तन्त्र में ज्यादा है जो बस सांत्वना देता है कि नौकरी मिलेगी लगे रहिए।
फिर यह युवा ८-१० हजार में निजी क्षेत्र में नौकरी करता है, शोषण का शिकार होता है । फिर सोचने लगता है इतनी मेहनत क्यों किया जब अपने, अपने माता पिता आदि के सपने ही पुरा नहीं कर सकता ? फिर इतनी पढ़ाई क्यों किया ? बचपन में इतना दबाव पढ़ाई का और पढाई ने दिया क्या ?
कहा जाता है नौजवान किसी भी समाज और देश के रीढ की हड्डी हैं लेकिन दुर्भाग्य है भारत वर्ष का कि यहाँ देखने को मिलता है कि अधिकांश युवा तो खड़े होने से ही डरते हैं क्योंकि उनको उनकी योग्यता के अनुसार इतना वेतन भी नहीं मिलता कि वह अपना और अपने परिवार का कायदे से भरण पोषण कर सके।
सभी युवाओं की बात नहीं की जा सकती कुछ रास्ते गलत चुन लेते हैं तो कुछ व्यवस्था तन्त्र की वजह से भटक जाते हैं कुछ के पास प्रकृति प्रदत्त क्षमताएं होती हैं।
कभी भुले भटके नौकरी का विज्ञापन आ गया युवा उसे भरते समय सपने देखता है परीक्षा होगी, परिणाम आयेगा, नौकरी मिलेगी लेकिन यहाँ नौकरी मिलनी तो दुर वर्षों वर्षों पता ही नहीं चलता परीक्षा कब होगी?
इन शिक्षित बेरोजगारों पर किसी ध्यान ही नहीं जाता, कुछ अभीभावक सक्षम होते हैं सामने आते भी हैं तो राजनीति करने लगते हैं या राजनीति के शिकार हो जाते हैं। ऐसा न हो कि भगवान की कृपा से उन सक्षम लोगों के घर के बच्चे भी बेरोजगार हों और वह सक्षम व्यक्ति भी सोचने पर विवश हो जाय की मेरी संतान भी पढ लिख कर घुम रहा है।
मैं या यह लेख किसी व्यक्ति, राजनेता, दल का विरोध नहीं कर रहे, यह विरोध है व्यवस्था का, जिस व्यवस्था से पुरा समाज एक भयंकर बीमारी से जुझ रहा है और डर है कि इस बीमारी से पुरी व्यवस्था ही छिन्न भिन्न न हो जाय!
व्यवस्था राजतन्त्र की हो या प्रजातन्त्र की प्रसाशक पर विश्वास रखना और उस तक बात पहुँचाना दोनो आवश्यक है और प्रशासक को भी चाहिए कि वह जनता की बातें/समस्याएं सुने उन्हें बोलने का अधिकार दे न कि उनका दमन करे।
व्यवस्था का विरोध हम करते हैं तो संयमित होना चाहिए अन्यथा राष्ट्र विरोधी ताकतें इसका दुरुपयोग करने से नहीं चुकेंगीं।
इस बेरोजगारी की समस्या पर ईमानदारी से विचार किया जाय तो इतनी बड़ी जनसंख्या को नौकरी दे पाना सम्भव नहीं हो सकता है लेकिन यदि प्रत्येक वर्ष यथा समय कार्य होनें लगें तो शायद इतना विरोध न हो साथ ही हमारी शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन करते हुए शिक्षा को स्वरोजगार परक बनाना होगा आत्मनिर्भरता विकसित करने के लिए ।
बेरोजगारी की समस्या का हल संवेदना/ आवेश से नहीं विवेक से सम्भव है, यदि कमी व्यवस्था तन्त्र का है तो कमी समाज का भी है जो इतनी बड़ी जनसंख्या खड़ी करने का जिम्मेदार है । बेरोजगारी का हल निकालने से पुर्व समाज की जिम्मेदारी बनती है कि व्यवस्था तन्त्र के सहयोग से जनसंख्या नियन्त्रण पर कार्य करे।
बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन बस इतना ही कहुँगा अन्त में कि समय से पहले और भाग्य से अधिक हम कुछ नहीं प्राप्त कर सकते और यह समय, कर्म और भाग्य पुर्व निर्धारित है ईश्वर द्वारा।
मेरे इस लेख का उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष,दल, या संगठन का विरोध करना नहीं है और न ही किसी की भावना को आहत करना फिर भी किसी को मेरे इस लेख से कष्ट होता है तो क्षमा प्रार्थी हुँ।
No comments:
Post a Comment