अभिजीत मिश्र

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Saturday, September 26, 2020

रामायण के खलनायक भी देते हैं अद्भुत और अद्वितीय शिक्षा शिक्षा

            वर्तमान समय ऐसा हो गया है कि हमारे समाज का लगभग प्रत्येक व्यक्ति स्तर विहीन हो गया, स्वार्थ सिद्धि और धन के लिए हम निम्न से निम्न स्तर पर जाने लगे हैं चाहे उसका कार्यक्षेत्र कोई भी हो, हम किसको आदर्श मानें, किसका अनुसरण करें‌ यह निर्णय लेना ही कठिन हो गया है।

            प्राचीनकाल से हमारा अखण्ड भारत वर्ष ज्ञान की धरा रहा है। यहाँ के खलनायकों का भी अपना स्तर रहा है। मानवीय/राक्षसी दुर्गुणों के वशीभूत हो कर उन्होंने पाप भी किया है, पर कभी भी धर्म पथ से पूरी तरह विमुख नहीं हुए, इसका प्रमाण हमारे धर्म शास्त्र भी देते‌ हैं और लगभग हम सभी दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर रामायण में हमने देखा भी ।राष्ट्र के साथ हम द्रोह करें यह भावना कभी भारतीय मूल की नहीं है, यह पूर्णतः आयातित है। 

         हमारे सनातन धार्मिक ग्रन्थों में रामचरित मानस एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके नायक ही नहीं खलनायक भी एक अद्भुत और अद्वितीय शिक्षा देते हैं आवश्यकता है बस हम सभी को समझने की।

           रामायण के नायक प्रभु राम, लक्ष्मण, भरत आदि ने यदि सिखाया कि राष्ट्र के लिए जीते कैसे हैं, तो खलनायकों से प्राप्त शिक्षा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है, उन्होंने हमें‌यह सिखाया कि राष्ट्र के लिए मरते कैसे हैं।

       अब हम आगे बढते हुए बात करते हैं‌ रामचरित मानस के खलनायकों‌ से ही प्राप्त शिक्षा की, वर्तमान समय में राष्ट्र के सीने में घाव बन के उभरे लोग रामकथा के खलनायकों से भी बहुत कुछ सीख सकते हैं। 

        कुम्भकर्ण -- सिखाते हैं कि यदि राजा की नीतियां, उसके कार्य पसन्द न हों तब भी राष्ट्रद्रोह नहीं करते। कुम्भकर्ण सिखाते हैं कि राजा से असहमति के बाद भी राष्ट्र के साथ खड़ा रहना ही धर्म है।

सैनिकों पर पत्थर नहीं फेंकते, राष्ट्र में उपद्रव नहीं करते... जब राष्ट्र विपत्ति में हो तो नागरिक का केवल और केवल एक ही कर्तव्य होता है, राष्ट्र की रक्षा! आंतरिक असहमतियों को बाद में भी सुलझाया जा सकता है, पर यदि राष्ट्र न रहा तो न सहमति का कोई मूल्य रह जायेगा न असहमति का... 

      मेघनाथ --  से सीखा जा सकता है पितृभक्ति । मेघनाथ से सीखा जा सकता है कि पिता की प्रतिष्ठा के लिए अपना बलिदान कैसे देते हैं, अपना शीश कैसे चढ़ाते हैं। इनसे सीखा जा सकता है कि अपने देश, अपने समाज, और अपने कुल के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को पूरा कैसे करते हैं।

     लंका के वैद्य सुषेण -- ने वैद्य-धर्म का पालन करना बताया है कि वैद्य की प्रतिष्ठा क्या है, और क्यों है? उन्होंने बताया कि सामने शत्रु‌ देश का निवासी भी अस्वस्थ है तो वैद्य धर्म का पालन करना न कि शत्रुता निभाना है और ना ही धन का लोभ करना है । वैद्य यदि शत्रुदेश का हो तब भी पूज्यनीय है। उसके ऊपर थूका नहीं जाना चाहिए, उसके ऊपर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए। यदि कोई वैद्यों के साथ दुर्व्यवहार करता है, तो वह मनुष्य तो छोड़िये असुर या राक्षस कहलाने योग्य भी नहीं।

      हम जिन्हें राक्षस कहते हैं, जो मनुष्यों का भक्षण करते थे, जिन्हें धर्म का ज्ञान नहीं था, उनका भी एक स्तर यह था कि राष्ट्र के लिए पूरा परिवार बलि चढ़ गया। किसी ने रावण को गाली नहीं दी, किसी ने लंका का अहित नहीं चाहा। इतिहास उन्हें अधर्मी भले कहे, गद्दार नहीं कहता।

      जिस विभीषण को समय ने कुलद्रोही घोषित कर दिया, वह भी बार-बार कहता रहा कि मुझे राज्य नहीं चाहिए, महाराज रावण माता सीता को राम को सौंप दें और धर्म के मार्ग पर आ कर शासन करें। माता के आगे, भाई के आगे, दूत के आगे... विभीषण युद्ध में भले राम के साथ खड़े रहे, पर लंका के लिए हमेशा ही विलाप करते रहे ...

        हमारे भारत की परम्परा रही है सीखने की। बुजुर्गों ने सिखाया है कि ज्ञान यदि कुकर्मी के पास भी हो तो उससे लेने में कोई दोष नहीं। जो लोग किसी भी व्यक्ति, मान्यता, या समुदाय के बहकावे में आ कर राष्ट्र से द्रोह कर रहे हैं, वे इस योग्य तो नहीं हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम को समझ सकें, पर उन्हें रावण के कुल से अवश्य सीख लेनी चाहिए।

              इस लेख का सम्बन्ध किसी जाति,धर्म, सम्प्रदाय,वर्ग,दल से नहीं है और न ही इसका उद्देश्य किसी की भावना  को आहत करना है।

 

1 comment:

  1. वर्तमान समय में यदि लोग इस तरह की शिक्षा लेने लगें तो शायद मानवता और सामाजिकता का इस प्रकार हनन नहीं होता 🙏🙏

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