भाद्रपद/आश्विन कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष के नाम से जाना जाता है।हमारे पितर लोग देवों से भिन्न् सामान्य मनुष्य से उच्च श्रेणी में आते हैं। पितृ पक्ष/श्राद्ध पक्ष में श्रद्धा द्वारा अपने पितरों को प्रसन्न किया जाता है। इसमें लोग गौ लोक वासी आत्माओं की तृप्ति व उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ तर्पण करते हैं। यह भी किंवदंती है कि इस पक्ष में यमराज जी मृत आत्माओं को भाव पूर्वक तर्पण स्वीकार करने के लिए मुक्त कर देते हैं। पूर्व काल से ही सनातन धर्म के हर वर्ग द्वारा अपने अपने परम्परागत ढंग से पुर्वजों के नाम से पूजा, दान आदि किया जाता रहा है इसके साथ ही जरुरतमंदों की सहायता की भी प्रथा है।
आज आधुनिकता का चश्मा पहने लोग श्राद्ध को पाखण्ड कहने लगे हैं। श्राद्ध कर्म के साथ ही साथ सनातन धर्म के धार्मिक कर्मकांड भी अपना पहचान खोते जा रहे हैं। इसके जिम्मेदार हिन्दू समाज के वो अगुवा वर्ग भी हैं जो यह कर्मकाण्ड करने में अक्षम व्यक्ति को समाज से बहिष्कृत कर देते थे, जिससे लोग कर्मकाण्डों को पाखण्ड और व्यक्तिगत स्वार्थ की संज्ञा देने लगे । आज का युवा वर्ग श्राद्ध कर्म के साथ ही अन्य धार्मिक को न मानता है न इसके बारे में जानना चाहता है क्योंकि युवाओं के साथ ही कुछ वर्ग इसे ब्राह्मणों द्वारा बनाया गया आडम्बर और धनोपार्जन का माध्यम मानते हैं।
श्राद्ध कर्म किसी ब्राह्मण के लिए नहीं बल्कि अपने पूर्वजों की तृप्ति के लिए, उनसे आर्शीवाद प्राप्त करने के लिए, अपने परिवार और कुल की उन्नति के लिए किया जाना चाहिए ।
सब कर्म काण्ड एक तरफ और जीते जी अपने माता पिता और बुजुर्गों की सेवा एक तरफ है।
हमें सनातन धर्म के कर्मकाण्डों, परम्पराओं का निर्वहन तो करना ही चाहिए लेकिन इससे आवश्यक है जीते जी अपने माता पिता और परिवार के बुजुर्गों की सेवा करना, उनको खुश रखना यथा सामर्थ्य उनको इच्छानुसार भोजन प्राप्त करवाना क्योंकि कुछ लोग द्वारा तो समाज में अपनी पहचान प्रतिष्ठा और बडकपन दिखाने के लिए भी भोज आदि का आयोजन किया जाता है।
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