बहते हुए जल धारा के जैसे दो किनारे होते हैं उसी प्रकार मानव जीवन के भी दो किनारे होते हैं आशा और निराशा। जब हम स्वयं को छोड़ दुसरों से आशा/अपेक्षा करते हैं कि वे हमारे साथ हमारे इच्छानुसार अच्छा/हमारे मनोनुकूल व्यवहार करेंगें और ऐसा होता है तो हमें खुशी मिलती है, हम सुख का अनुभव करते हैं और हमारे इच्छा के विपरीत व्यवहार करते हैं तो हमें क्रोध आता है, हम कष्ट महसूस करते हैं/ निराश होते हैं।
हम दुसरों से जितना आशा रखेंगें हमें उतना ही कष्ट होगा, हम दुःखी रहेंगे। यदि हमें सुखी और खुश रहना है तो हमें दुसरों से आशा नहीं करनी चाहिए।
यदि हम दुसरों से आशा/अपेक्षा रखते हैं तो हमें यह सोचकर रखना होगा कि काम हमारे इच्छानुसार हुआ तो भी ठीक और न हुआ तो भी ठीक।
संक्षेप में यदि कहें तो सुखी जीवन का एक मन्त्र अपनाना होगा -- "ना किसी से अपेक्षा न किसी की उपेक्षा।"
Well Said brother .
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