अभिजीत मिश्र

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Wednesday, October 14, 2020

आधुनिकता के साथ बढता दुराचार जिम्मेदार कौन ??



आजकल हम प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर दुराचार की घटनाएं लगभग प्रतिदिन ही देख रहे हैं जो अत्यंत हृदय विदारक और पीडादायक होती हैं।
 जैसे गैंगरेप और तड़पाकर कर अमानवीय तरीके से की गयी हत्या, छोटी छोटी बच्चियों से दरिंदगी, सगे सम्बन्धी द्वारा बारम्बार दुराचारर और सम्बंधित महिला या लड़की की किसी मजबूरी का फायदा उठाकर उसके साथ दुराचार। ये सब देख या सुनकर हम आप क्या करते हैं ? कभी कभी मन विचलित हो जाता है कभी ज़माने को कोसते हैं कभी न्याय व्यवस्था को, तो कभी पुलिस को फिर थोड़े देर बाद सब भूलकर अपनी दिनचर्या में लग जाते हैं क्या कभी हमने गौर किया है कि इन घटनाओं के पीछे कारण क्या हो सकते हैं ? 
जो कुछ हो रहा है, भयावह है। चैनल खबर चला रहे हैं, विधान सभा/संसद सदमे में है। सदमे में तो हम हैं। बच्चियाँ/स्त्रियाँ अब क्या करेगीं, कैसे जिएगीं, कैसे अपना मुंह सबको दिखाएगीं- ये कैसे सवाल हैं? लोग रो रहे हैं, दुखी हैं, और कह रहे हैं अब तन ढकने से क्या, बेचारी का जो था सो तो सब लुट गया। इज्जत सरेआम रौंद डाली गई। अब तो बेचारी तिल-तिल कर घुट-घुट कर मरेगी। यह सब क्या है? यह कैसी सहानुभूति है, जो दुराचार का शिकार हुई स्त्री को स्वाभाविक जीवन जीता देखना गवारा नहीं करती। संसद में बैठी शक्तिशाली नारियाँ नहीं जानतीं कि रोजाना सार्वजनिक वाहनों में सफर करने का महिला के लिए कैसा अनुभव होता है? वे नहीं जानतीं कि सड़क पर चलना क्या होता है। एक सामान्य पुरुष साथी की तरह खुली हवा में सांस लेने, कभी-कभार फिल्म-पिकनिक की मौज-मस्ती के लिए स्त्री को मानसिक रूप से कितना तैयार होना पड़ता है। संसद में बैठी नारियाँ यदि अपनी पहचान छोड़ कर सामान्य स्त्री का जीवन एक दिन के लिए जीकर देखें तो शायद इस संसद-रुदन की जरूरत न पड़े। शक्तिमान महिलाओं को विलाप करते देखना अजीब लगता है। जिनके पास सत्ता की ताकत है, कानून बनाने और उसे क्रियान्वित करने की क्षमता है, जिन्हें अपनी इस जिम्मेदारी को कब का पूरा कर देना चाहिए था उनकी आंखों में सिर्फ आंसू आ रहे हैं, वे सिर्फ मार्मिक भाषण दे रही हैं, वे नम आंखों से निहार रहे हैं। यह आश्चर्यजनक और कष्टप्रद है ।
 आए दिन मासूमों के साथ होने वाले दुराचार के मामले सामने आते हैं. कई बार ये बातें हंगामा खड़ा करती हैं, तो कई बार यूं ही दब जाती हैं. बहुत से मामलों तक लोगों का ध्यान ही नहीं जाता, हम सभी इन मुद्दों पर चर्चा करते हैं, लम्बे भाषण दे देते हैं, लेकिन एक मासूम बच्ची किस दर्द से गुजरती है, इसका अंदाज़ा कोई नहीं लगा सकता. ऐसे हादसों के द्वारा मासूमियत से भरा बचपन कुचल दिया जाता है और वो बच्ची एक टीस के साथ युवा होती है, हमें सोचना होगा क्या भारत का भविष्य ऐसे दर्द में जीने वाले बच्चों के हाथ में राहत की सांस ले सकेगा? अगर नहीं, तो हम क्यों बच्चों पर हो रहे इन अपराधों के बारे में गंभीर नहीं हो रहे?
इन बढती घटनाओं के पीछे कुछ व्यक्ति नहीं हमारा परिवार, हमारा‌ पुरा पुरा समाज, हमारी व्यवस्था जिम्मेदार है, जिम्मेदार है हमारे बीच बढ़ती अन्ध पाश्चात्य और आधुनिक सभ्यता जिसके पीछे हम अपनी संस्कृति और सभ्यता भुलते जा रहे हैं, हम भुल रहें हैं कि सूरज जब पश्चिम में जाता है तो डुब जाता है। हमारा दुषित खान पान, हम भूल रहे हैं अपनी कहावत- जैसा खाये अन्न वैसा होये मन, जिम्मेदार है हमारी न्याय व्यवस्था, जिम्मेदार है हमारी बढती सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मिडिया की पहुँच और उसका दुरुपयोग । 
            पहले संयुक्त परिवार होता था घर के बड़े बुजुर्ग  बच्चों को समझाते थे कि गाँव/समाज की लड़की बहन के ही समान हैं और इनके सम्मान और इनकी रक्षा भी प्रत्येक बच्चे की जिम्मेदारी है लेकिन आज आधुनिक एकल परिवार में विद्यालय से घर आते ही माँ पहला सवाल बच्चे से करती है कि कोई महिला मित्र बनाया या नहीं और पिता हँस कर टाल देता है। समाज तो दुर की बात है 
घर से नारी सम्मान के संस्कारों के स्थान पर नारी भोग की मानसिकता का विषपान कराया जा रहा है । 
पहले के युवा  लड़की को शक्ल से जानते हों या न जानते हों परन्तु अपने गाँव की लड़की है बस इस सोच के साथ उनके सम्मान के लिए जान पर खेल जाते थे।
आज के आधुनिक मानसिकता के युवा अपने मित्र से पड़ोस की लडकी के लिए सामान्यतः कहते मिल जायेंगें मुझसे पटती नहीं,तू पटा ले यार!!
   आज हम बहुत आगे बढ़ चुके हैं  इंटरनेट क्रांति और स्मार्टफोन की सर्वसुलभता ने पोर्न या वीभत्स यौन-चित्रण को सबके पास आसानी से पहुंचा दिया है कुछ समय पहले तक इसका उपभोक्ता केवल समाज का उच्च मध्य-वर्ग या मध्य-वर्ग ही हो सकता था, लेकिन आज यह समाज के हर वर्ग के लिए सुलभ हो चुका है. सबके हाथ में है और लगभग निःशुल्क है, कीवर्ड लिखने तक की जरूरत नहीं, हम मुंह से बोलकर गूगल को आदेश दे सकते हैं इसलिए इस परिघटना पर विचार करना किसी खास वर्ग या क्षेत्र के लोगों के बजाय हम सबकी आदिम प्रवृत्तियों को समझने का प्रयास है, तकनीकें और माध्यम बदलते रहते हैं, लेकिन हमारी प्रवृत्तियां कायम रहती हैं या स्वयं को नए माध्यमों के अनुरूप ढाल लेती हैं।
 इसे ऐसे समझा जा सकता है कि कभी फुटपाथ पर बिकने वाले अश्लील साहित्य से लेकर टीवी-वीसीआर-वीसीडी-डीवीडी और सिनेमा के रास्ते आज हम यू-ट्यूब तक पहुंच चुके हैं लेकिन एक समाज के रूप में हमारी यौन-प्रवृत्तियां बद से बदतर होती गई हैं।
 यह आसानी से समझ में आने वाली बात है कि जिन चीजों को हम बार-बार देखते हैं या जिन बातों के बारे में हम बार-बार सोचते हैं, वे हमारे मन, वचन और कर्म पर कुछ न कुछ प्रभाव तो अवश्य ही छोड़ते हैं। प्राचीन मनीषियों ने अपनी दैहिक और आध्यात्मिक साधना से भी इसे अनुभूत और प्रमाणित किया था, संतों की वाणियों में अक्सर हमें ये बातें सुनने को मिलती हैं, इसलिए पोर्न या सिनेमा और अन्य डिजिटल माध्यमों से परोसे जाने वाले सॉफ्ट पोर्न का असर हमारे दिमाग पर होता ही है और यह हमें यौन-हिंसा के लिए मानसिक रूप से तैयार और प्रेरित करता है इसलिए अभिव्यक्ति या रचनात्मकता की नैसर्गिक स्वतंत्रता की आड़ में तमाम भारतीय भाषाओं में परोसे जा रहे स्त्री-विरोधी, यौन-हिंसा को उकसाने वाले और महिलाओं का वस्तुकरण करने वाली व्यवस्थाओं की वकालत करने से पहले हमें थोड़ा सोचना होगा।
न्याय और कानून प्रक्रिया में यह सहानुभूति का अभाव ही तो है कि बलात्कार पीड़िता या सर्वाइवर के प्रति बाद मॆं भी डाॅक्टर,पुलिस,वकील, न्यायिक अधिकारियों तक का व्यवहार ऐसा होता है कि कई महिलाएं मुकदमा वापस ले लेती हैं और कई तो रिपोर्ट तक नहीं करती हैं अक्सर देखा जाता है कि पिता और दादा की उम्र तक के वकील पीड़ित बच्चियों से ऐसे घृणित सवाल इतने संवेदनहीन तरीके से पूछते हैं कि ज्यादातर बच्चियों को बलात्कार से भी अधिक सदमें से कई-कई बार गुजरना पड़ता है. जबकि इस बारे में तय नियम और दिशा-निर्देश भी मौजूद हैं, लेकिन उनका पालन शायद ही भारत के किसी थाने या न्यायालय में होता होगा। 
क़ानून चाहे जितने बना लिए जायें, जब तक मामलों के निस्तारण के लिए एक टाइम फ्रेम नहीं तय होगा तब तक कुछ नहीं हो सकता। दिल्ली के निर्भया काण्ड में जिन लोगों को सजा मिली क्या उस पर अमल हो सका ? यह सवाल मौजूद इसलिए है, क्योंकि जिन बेटियों की लड़ाई में जनता के साथ ने समाज की एक गलीज परत को उघाड़कर रहनुमाओं की प्राथमिकता बदल दी, वह जनता अपनी लड़ाई में केवल निचले पायदान तक पहुंच पाई है। न्याय की चौखट पर उनके सामने अभी इतनी लंबी चढ़ाई बाकी है जिसे नाप पाने में शायद उनकी उम्र ही निकल जाएगी। जब तक उन्हें न्याय मिलेगा हो सकता है अपनी जिन बेटियों के लिए आज हम चिंताग्रस्त होकर स्कूल भेज रहे हैं, तब तक उनकी शादी की तैयारियों में व्यस्त हों। शायद ये मेरे वक्ती जज्बात हो सकते हैं।
अब बात करें मीडिया की तो मीडिया का जब से कॉरपोरेटीकरण हुआ है, अद्भुत खेल देखने को मिल रहे हैं। खेलों तक में यौन आकांक्षाएं पूरी करने को ‘हॉट गर्ल’, ‘ग्लैमर गुड़िया’ ढूंढ़ने का अभियान मीडिया चला रहा है, सिर्फ खेल देखना हो तो खेल लड़कियां दिखा ही रही हैं। बड़े लोगों का मन विश्व सुंदरियों से नहीं भरा तो अब खेलों में भी सुंदरी खोज रहे हैं। इसमें प्रिंट और दृश्य, दोनों मीडिया शामिल हैं। कुछ चैनल वाले रात-रात भर पॉवरप्राश, शक्तिप्राश और यौन-शक्तिवर्धक दवाओं के अश्लील विज्ञापन दिखाते हैं, फिर दिन भर बलात्कारियों को फांसी पर एसएमएस मंगवा कर ऊंची कमाई करते हैं। रात में प्रचार से कमाई और दिन में उसके विरोध से कमाई! मर्दानगी की सारी अवधारणाएं किस समाज की हैं? परफ्यूम के विज्ञापनों में मर्दानगी का पागलपन दिखाया जाता है। लगभग हर विज्ञापन में स्त्री को देह, उपयोग और उपभोग की चीज बना कर परोसा जाता है, हर चैनल पर हिंसा और अपराध की कथाएं मनोरंजक बना कर चटखारे लेकर परोसी जाती हैं, जिनमें अपराध का न तो विश्लेषण किया जाता है और न उसे गंभीर समाजशास्त्रीय नजरिए से प्रस्तुत किया जाता है। दिन-रात चैनलों पर हिंसा, हत्या ,बलात्कार देख कर जाहिर है एक हिंसक, मानसिक रूप से विकृत और कुंठित समाज ही बनेगा। बहुत संकट की स्थिति है।
      अपराध को अपराध की तरह ही देखा जाना चाहिए वरना अपराध के लज्जा, अपमान, आत्महत्या तक होते हुए समाज न जाने कहां पहुंचेगा। ये घातक स्थितियां हैं और इन्हें हमारा समाज ही निर्मित करता है। स्त्री की यौन-शुचिता को लेकर समाज इतना दुराग्रही है कि उससे आजाद होना बहुत मुश्किल दिखता है। दुराचारी को को तो फांसी दे देंगे लेकिन जो लोग यह सोचते हैं कि अब बेचारी लड़की कैसे जिएगी, क्या करेगी, उसका जीवन तबाह हो गया, उनके इस सोच को फांसी कैसे देंगे? स्त्री दुराचारर के बाद जीना भी चाहे तो इस मानसिकता की वजह से उसकी पढ़ाई-लिखाई, उसका व्यवहार सब परे हटाकर समाज उसे एक यौन-अंग में तब्दील कर देखेगा कि इसका सब कुछ छिन गया। अब इसके पास बचाने को क्या है? जहां इस बात पर बहस चलती हो कि लड़की कैसे कपडे पहनती है, किस समय बाहर जाती है, लड़कों से दोस्ती रखती है, जोर-जोर से हंसती है, वहां सामान्य इंसान के रूप में स्त्री को स्वीकार किया जाना अभी बाकी है। इस कुंठित मनोवृत्ति को फांसी दें! स्त्री को मेहरबानी कर जीने दें, उसे खुली हवा में सांस लेने दें, उसे अपनी जिंदगी के सपने पूरे करने दें। उसे बलात्कार पीड़िता की पहचान में न बदलें ।
 हमारे पुरुष प्रधान समाज का कमजोर पर महत्वपूर्ण अंग हैं स्त्री जो माँ भी है,बहन भी, बेटी भी और बीबी भी, विभिन्न रूपों में वे हमारे जीवन का अंग हैं उनके बिना समाज की कल्पना नहीं हो सकती वे नये जीव को संसार में लाती हैं पाल पोस उसे बड़ा करती है उन्हें हम उपेक्षित कैसे छोड़ सकते हैं ? तो क्या किया जाय जिससे दुराचार पर
काबू पाया जा सके?
त्वरित न्यायबोध और पीड़ितों की संतुष्टि के लिए ऐसे दंडात्मक प्रयास भी चलें. लेकिन यह वास्तविक समाधान नहीं होगा. जबकि समानुभूति सीखने-सिखाने और पैदा करने का रास्ता बहुत मुश्किल और लंबा जरूर है, लेकिन असंभव नहीं।
यौन-विकृतियों से जुड़े क्षणिक मनोविकारों को आत्मानुशासन, आत्मनियंत्रण, मानसिक दृढ़ता, ध्यान या प्राणायाम के लगातार अभ्यास से किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है, उसे भी बिना किसी पूर्वाग्रह के सीखना-सिखाना होगा, जीवन-शैली और दिनचर्या नहीं। इसके साथ यह भी अवश्य है कि न्याय के लिए समय का निर्धारण, मासुमों के साथ दुराचार करने वालों के लिए ऐसे कठोरतम दण्ड का प्रावधान हो की उसे देख मौत भी सहम जाय, वह व्यक्ति मौत को तडपे और मौत नसीब ना हो । हमें समझने और समझाने की जरूरत भी है कि हम और हमारे बच्चे क्या पढ़ते हैं, क्या देखते-सुनते हैं, क्या हम और हमारे बच्चे किसी व्यसन का शिकार तो नहीं हैं, हमारे घर और आस-पास का वातावरण हमने कैसा बनाया हुआ है, इस सबके प्रति सचेत रहना होगा इंटरनेट और सोशल मीडिया इत्यादि का विवेकपूर्ण और सुरक्षित ढंग से उपयोग सीखना और सिखाना भी इसी निजी सतर्कता का हिस्सा है।
        जिन बुजुर्गों के विचार हमें रद्दी लगने लगे हैं  और हम अपनी पुरातन संस्कृति, सभ्यता को छोड़ कर आधुनिकता के नाम पर नंगा नाच कर रहे हैं यह हमें छोडना होगा ।
    यह लेख मेरा निज विचार/मन की व्यथा है, इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति विशेष/माननीय न्यायालय/सरकार/मीडिया का अपमान करना नहीं है, फिर भी यदि ऐसा होता है, किसी की भावनाएं आहत होती हैं तो मैं करवद्ध क्षमा प्रार्थी हुँ।
 

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