अभिजीत मिश्र

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Friday, November 6, 2020

अपने उत्थान और पतन की चाभी स्वयं हमारे पास है

हिन्दू धर्म शास्त्रों में आज तक हम कहते सुनते और पढते आये हैं -- 'उत्थान पतन सब है मेरा भगवान तुम्हारे हाथों में' इसके साथ ही यह भी कहा गया है कि 'कर्म प्रधान विश्व करी राखा'।

                  यह सही है कि सब कुछ ऊपर वाले के हाथ में है और इसके सम्बन्ध में कहा भी गया है कि 'पत्ता तक हिलता नहीं खिले न कोई फूल' यह सब कथन सही मानता हुँ लेकिन फिर भी यह मानता हुँ कि इस परिवेश में उत्थान और पतन (कम से कम चारित्रिक) तो हमारे ही हाथ में है ।

               हम सबने यह अवश्य सुना ही होगा 'सादा जीवन उच्च विचार'यह कथन सतप्रतिशत सही है। हमारे जीवन में विचार शुद्ध, सात्विक और उच्च हों इसके लिए आवश्यक है कि पहले हमारी जीवन शैली सादगी पूर्ण हो

                वर्तमान परिवेश में सम्पन्नता /अमीरी की परिभाषा ही महँगे भौतिक संसाधनों का उपयोग हो गया है, इस दिखावे को ही हम अपनी इज्जत समझने लगे हैं और जिसको पुरा करने के जैसे- तैसे, सही-गलत तरीके से पैसा कमाने में लग गये हैं, हाय पैसा हाय पैसा करते हुए। इस दिखावटी सम्पन्नता की कोई सीमा भी निर्धारित नहीं है और इसमें हम उलझते हुए अशान्त, चिडचिढे होते हुए और चारित्रिक पतन की और बढते जाते हैं। 

                   इस दिखावे में हम ऐसे फंसते जाते हैं कि नैतिक अनैतिक सब कुछ करने के बावजूद कमी ही बनी रहती है

              इसलिए यदि हमें चारित्रिक उत्थान करना है तो हमारे अन्दर अपव्यय, दिखावे का ठाट बाट, वाह्य आडम्बर आदि को कोई स्थान नहीं होना चाहिए क्योंकि इस आडम्बर युक्त जीवन जीने में अत्यधिक समय, धन और विचारों को हम नष्ट करते हैं और कभी कभी तो इस दिखावे का बोझ हम खुद के ऊपर इतना बढा लेते है कि इस तरह का जीवन व्यतीत करने के लिए हम अनैतिक कार्य भी करने लगते हैं ।

                इस घनघोर महंगाई के समय में ईमानदारी की आय से केवल जीवन यापन ही सम्भव है, अत्यधिक भौतिक संसाधनों की पूर्ती नहीं ।

              सादगी और आध्यात्म भरा जीवन तभी सम्भव होगा जब हम भौतिक साधनों की मृगतृष्णा से बाहर रहेंगें।

               अतः आध्यात्मिक और सात्विकता भरा जीवन तभी सम्भव है जब हमारा दिखावे से दुर सादगी पूर्ण होगा और हम उसी में सन्तुष्ट रहेंगें लेकिन इसका आशय यह कदापि नहीं है कि हम कर्म हीन हो जायें।

                 संक्षिप्त में कहें तो हमारे पैर चादर के बाहर तभी होते हैं जब हमारी इच्छाएं वसुलों से बड़ी हो जाती हैं और इसी दशा में हमारी सोच और कर्म अनैतिक होते चले जाते हैं

                   इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि हमारे जीवन और विचारों का पतन और उत्थान हमारी भौतिक संसाधनों की इच्छा जो हमारी आय की अपेक्षा अधिक होती है उस पर विशेष रुप से निर्भर है।

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