परिवर्तन प्रकृति का नियम है और समय समय पर हमारे समाज में परिवर्तन होते रहते हैं प्रकृति और समाज के परिवर्तन को सहर्ष स्वीकार करना एक महत्वपूर्ण और साहसपूर्ण कार्य है । परिवर्तन को स्वीकार करके ही विकास पथ पर आगे बढा जा सकता है । लेकिन विकास और परिवर्तन के नाम पर आज अपने समाज में पश्चिम की अभद्रता को बहुत अधिक मान्यता दिया जा रहा है, इसका ज्वलन्त उदाहरण आने वाले ३१ दिसम्बर और एक जनवरी को देखा जा सकता है जब हमारे समाज के तथाकथित आधुनिक लोग अपनी संस्कृति और मर्यदा भूल कर मांस, मदिरा, ध्वनि विस्तारक यन्त्रों के अभद्रता पुर्ण तरीके से सडको, पार्कों और क्लबों में दिखाई देंगे।
हमें समय के परिवर्तन के साथ अपने विचार बदलने और विकसित करने चाहिए क्यों कि जो कल सही लगता था उसमें से बहुत कुछ गलत था और आज बदल गया उसी प्रकार आज जो सही है उसमें से कल कुछ गलत हो सकता है ।
जिस प्रकार हमने कल की बाल विवाह, सती प्रथा आदि गलत मान्यताओं/परम्पराओं को छोड़ा उसी प्रकार हमें आज की जात पात, ऊँच नीच कॆ भेदभाव, बिल्ली के रास्ता काटने जैसे गलत मानसिकता/परम्परा को छोड़ना होगा ।
परिवर्तन से आशय अपने समाज में व्यापत गलत अवधारणाओं, प्रथाओं, रुढिवाद को छोड़ प्रगति पथ पर संर्घषशील होना है न कि इस परिवर्तन की आड़ में हम अपनी स्वस्थ, सात्विक, शुभ संस्कृति, परम्परा और पद्धति को छोड़ कर आधुनिता और समय की माँग कह कर पाश्चात्य सभ्यता के फुहडता को अपना लें।
हमें किसी भी परिवर्तन कि स्वीकार करने के साथ यह ध्यान रखना होगा कि जिस समाज और राष्ट्र की शुभ संस्कृति, सभ्यता और परम्परा को नष्ट किया जाता है उस समाज और राष्ट्र का विनाश होने और उसे पराधीन होने से कोई नहीं रोक सकता ।
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