जिस मातृ शक्ति(बेटी) के बिना ईश्वरीय सत्ता भी इस सृष्टि के संचालन की कल्पना नहीं कर सकता उस बेटी के लिए तथाकथित आधुनिक और सभ्य कहे जाने वाले हमारे समाज में एक आम धारणा बनी हुयी है कि बेटी पराया धन है, उसे दुसरे के घर जाना है जो बेटियों के मन में एक कुण्ठा का रुप ले लेता है इसी के साथ ही एक धारणा यह भी है कि बेटी ( वधु )का पिता बेटे (वर) के पिता से हमेशा छोटा होता है लेकिन अब समय आ गया है इस सोच को बदलने का क्योंकि मेरे विचार से बेटियाँ पराया धन नहीं बल्कि पिता का स्वाभिमान होती हैं और बेटी का पिता कन्यादान और आज कल तो मोटा दहेज भी देता है इसलिए वह बेटे के पिता से बड़ा हुआ क्योंकि दान दाता हमेशा दान लेने वाले से बड़ा ही रहेगा ।
इस समय तिलक विवाह का शुभ मुहूर्त चल रहा है हम सभी एक दो ही सही लेकिन इस तरह के अवसर में अपनी सहभागिता सुनिश्चित किये होंगें। एक सामान्य स्वभाव मानव का है कि विवाह में जाते ही पहले वहाँ की साज सज्जा और खान पान की व्यवस्था के साथ वधु (लड़की) का अवलोकन करता है और यहाँ से शुरु होता है टीका टिप्पणी का सिलसिला कि व्यवस्था ऐसी है और फलां फलां खाने में ये ये कमियां हैं, लड़की ऐसी है वैसी है आदि- आदि।
यह सब टीका टिप्पणी करते समय क्या हमने कभी यह सोचने का प्रयास किया कि एक लड़की के माता पिता के लिए एक बेटी कितनी महत्वपूर्ण है और न जाने अपने कितने सपनों का गला घोंट कर अपनी बेटी को पढाते लिखाते हैं, योग्य बनाते हैं ?
एक लड़का या उसका पिता कभी यह सोचने की कोशिश किया कि एक बेटी के विवाह और बारातियों के स्वागत सत्कार के लिए बेटी का पिता कितने वर्ष पहले से तैयारी शुरु कर देता है उसके रातों की नींद गायब होनें लगती है। बेटी के लेन देन में किसी प्रकार कोई कमी न रह जाय इसको सोच कर एक लड़की के माता पिता अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं का भी गला घोंटते रहते हैं। कई वर्षों तक माता पिता अपने लिए कोई वस्त्र नहीं खरीदते कभी कभी तो विवाह के दिन सबको दिखाने के लिए लड़की की माता को अपने किसी घनिष्ठ के कपड़े और जेवर का प्रयोग करना पड़ता है क्योंकि उन्हें पहले अपनी बेटी के कपड़े, आभुषण आदि की व्यवस्था जो करनी होती है और एक ही सोच दिल दिमाग में घुमता है कि बेटी की शादी में कहीं कोई कमी न रह जाय ।
इन सब त्यागों के बाद भी वर पक्ष के लोगों को कभी पुडी ठन्ढी लगती है तो कभी मीठा कडा और चाट का स्वाद फीका लगता है।
क्या कभी हमने सोचा कि यह कमी लडकी के पिता/घर वालों की है या भोजन बनाने वाले की ???
हम यह सब कहते समय भुल जाते हैं कि बेटी के पिता की भी कुछ इज्जत है उसकी भी रक्षा करनी चाहिए वह अब हमारा रिश्तेदार बन गया ।
अब हम आते हैं विवाह के दुसरे पक्ष उपहार जो वधु पक्ष के लोग अपनी स्वेक्षा से देते थे लेकिन अब यह दहेज के रुप में आसुरी रुप ले लिया है और लड़के वाले इसे अपना अधिकार समझ कर लड़की पक्ष का दोहन करते हैं और भूल जाते हैं कि उनके घर भी कोई लड़की है यदि नहीं है तो कभी हो सकती है। ससुराल जाने के बाद अक्सर यह देखा जाता है कि बहु क्या क्या लाई, कोई यह नहीं देखता है कि एक बेटी क्या क्या छोड़ आयी??
सब यह पुछते हैं कि बहु के पिता ने क्या क्या दिया किसी को यह एहसास क्यों नहीं होता कि एक बाप अपने जीगर का टुकड़ा दे दिया, हमें यह एहसास क्यों नहीं होता कि अपने बटी के विदाई के बाद कितने दिनों तक उसके माता पिता को अपने जिगर के टुकड़े की याद सताएगी ?
इस लेख का उद्देश्य मात्र इस बात को बढावा देना है कि लड़की पराया धन नहीं बल्कि हमारा स्वाभिमान होती है और दानदाता दान लेने वाले से बड़ा होता है इसलिए बेटी का पिता (कन्यादान दाता) भी लड़के के पिता से बड़ा पद रखता है यही नहीं मैं तो यह विचार रखता हुँ कि यदि वर पक्ष वर के पद/आय की वजह से अत्यधिक दहेज की माँग करता है तो उससे बड़ा गरीब और भीखारी हमारे समाज में कोई और हो ही नहीं सकता।
संक्षिप्त में कहुँ तो अब आवश्यकता है तथाकथित आधुनिकता का चश्मा पहने नर पिशाचों के बीच में बेटी को चाॅद का टुकड़ा बनाने या उसमें कुण्ठा पैदा करने के स्थान पर उसे स्वावलंबी, आत्म निर्भर, दृढ़ इच्छा शक्ति, चारित्रिक, पारिवारिक गुण के साथ आत्म रक्षा के गुण विकसित कर उसमें सुर्य सा तेज विकसित करने की जिससे कोई उसकी तरफ कोई बुरी नजर से आँख उठा कर भी न देख सके और हर एक बेटी का पिता भी समाज में (वर पक्ष के सामने भी) साधिकार सर उठा के बात कर सके।
इस लेख का उद्देश्य किसी को अपमानित करना नही है और ना ही किसी की भावना को आहत करना ।
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