हर व्यक्ति एक सफल जीवन जीना चाहता है लेकिन अधिकांश व्यक्तियों का लक्ष्य ही निर्धारित नहीं होता है और यदि होता भी है तो समय के साथ जीवन में आने वाले झंझावातों/कठिनाईयों से वह लक्ष्य से भटक जाता है तथा इसके साथ ही यह कहना भी गलत नहीं लगता कि इस वर्तमान भौतिकवादी और भोगवादी समय में सफल जीवन का मतलब ही बदल गया है और इस समय सफल जीवन का आशय मात्र अत्यधिक धन और भौतिक संसाधनों की अधिकाधिक पूर्ति तक आ कर सीमित हो गया है जो जितनी जल्दी यह सब प्राप्त कर ले वह उतना ही सफल माना जाने लगा है चाहे यह प्राप्त करने का मार्ग गलत ही क्यों न हो, इसका परिणाम यह हो गया है कि मनुष्य असंयमित, धैर्यहीन, निष्ठुर, और दुराचारी बनता जा रहा है ।
यह समाज के लिए एक भयावह स्थिति बनता जा रहा है । वास्तव में जीवन में सफल वही हो सकता है जो अपना लक्ष्य निर्धारित कर धैर्य और संयम के साथ उस पर अडिग रहता है और इस निर्धारित लक्ष्य के मार्ग में आने वाली समस्त छोटी बड़ी समस्याओं को नजर अंदाज कर दृढ़ता के साथ उसका सामना करता है ।
सफलता की पहली सीढ़ी मनुष्य का संयम और धैर्य ही है और मनुष्य का संयम, संवेदनशीलता, अनुशासन, सद्विचार, सहनशक्ति, विवेक, संतोष के मजबूत आधार पर ही टीका है।
हमारा ज्ञान को अच्छी शिक्षा, अच्छे संस्कार, सुसंगति से बल प्राप्त होता है ।
हमारे सेवाभाव, परिश्रम, सादगी पुर्ण जीवन शैली से सहनशीलता बलवती होती है।
हमारे विचार चिंता छोड़ चिन्तन करने से शुद्ध होते हैं तथा ईश्वर की भक्ति से हमारी संवेदनशीलता बलवती होती है और इसके साथ ही साथ हमारा दृढ़ निश्चय शक्ति जिन्दगी में अनुशासन लाता है ।
वास्तविकता में उपर्युक्त वर्णित मनुष्य के सभी गुण मनुष्य के संयम से ही बँधे हुए हैं और यह संयम का बाँध जैसे ही टुटता है वैसे ही हमारे सारे गुण उफनती नदी के तेज बहाव में हिचकोले खा के डुब कर नष्ट होती नौका की तरह नष्ट हो जाते हैं । कुछ छण के लिए ही असंयमित हुआ हमारा मन ऐसे कुकर्म का जन्मदाता बन सकता है जिससे हमारे पुर्व के किये गये सारे सद्कर्म नष्ट हो सकते हैं और बहुधा यह होता भी है।
मनुष्य का असंयमित होता जीवन ही अनैतिकता का पाठ पढा कर ईष्या, काम, क्रोध, लोभ भ्रष्टाचार, उत्पीड़न, हिंसा, अत्याचार आदि अपराध के साथ नशाखोरी, गला काट प्रतिस्पर्धा आदि राक्षसी प्रवृत्ति, अवसाद आदि का शिकार मनुष्य को बनाता जा रहा है।
संक्षेप में यदि हम कहें तो मनुष्य के सभी दुर्गुण जो मनुष्य जीवन को असफलता की ओर ले जाते हैं उसले लिए स्वयं मनुष्य का भोगी प्रवृत्ति जिम्मेदार है।
वर्तमान तथाकथित आधुनिक भोग वादी समाज में
मनुष्य को अपनी जीवनशैली व दिनचर्या में बदलाव की अत्यन्त आवश्यकता है साथ ही इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता है कि मनुष्य का भोग से योग की तरफ वापस आना असम्भव सा प्रतीत होता है लेकिन भोग और योग में सन्तुलन बनाने की अब अत्यंत आवश्यकता है ।
हम मनुष्यों में देव और दानव दोनों का वास है, हम देव भले ही नहीं बन सकते लेकिन एक सफल मनुष्य जीवन व्यतीत करने के लिए हमें दानव बनने से बचना होगा ।
यह लेख लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं, अपवाद सम्भव है।
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