अभिजीत मिश्र

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Thursday, May 6, 2021

विज्ञान - उत्थान या पतन











 सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर इस लेख के माध्यम से यह विचार रखने का प्रयास किया गया है कि विकसित होते यान्त्रिक और भौतिक संसाधनों के साथ मानव समाज का उत्थान हुआ है या पतन ।

                       वर्तमान समय में यदि हम अपने जीवन को देंखें तो यह प्रत्यक्ष रुप से प्रदर्शित होता है कि आज का मनुष्य और उसकी दिनचर्या मशीनी हो गया । आज का परिवेश ऐसा हो गया है कि मनुष्य का मनुष्य से घनिष्ठता शून्य के बराबर हो गया है और यन्त्रों से बढ गया है, स्थिति यह बन गयी है कि मनुष्य और यन्त्र को परस्पर अलग करना काल्पनिक हो गया है यन्त्र से मनुष्य अलग तो क्या आज दुर भी नहीं हो पायेगा । यह आधुनिक विज्ञान हमें कहाँ से कहाँ ला दिया, हमारा उत्थान किया या पतन, साथ ही यदि विज्ञान शैतान का रुप धारण कर यदि हमारा पतन कर रहा है तो हम उससे कैसे बचें इसको निम्न प्रमुख बिन्दुओं के आधार पर समझने की कोशिश की गयी है ।

नैतिक पतन--  मनुष्य समाज का निर्माण करता है और समाज                    मनुष्य का । मनुष्य एक सामाजिक प्राणि है लेकिन इस भौतिकवादी यन्त्रिक युग में मनुष्य भूल गया है कि समाज और परिवार के प्रति क्या दायित्व है । 

           मनुष्य इस  वैज्ञानिक/मशीनी/भौतिक संसाधनों से ऐसा  जुड़ गया है कि पड़ोसी, मित्र और रिश्तेदार तो दुर वह अपने परिवारजनों से भी दुर हो गया है, अपनों के लिए भी समय नहीं रहा है आज मनुष्य के पास । अधिकांश तो घर के किसी बीमार सदस्य के पास बैठना उचित नहीं समझते न उनके पास अपने बच्चों की शिक्षा दीक्षा के विषय मे जानकारी लेने का समय है। लेकिन भी एक सत्य है कि दायित्वों को भुलने के क्रम में मनुष्य यह नहीं भुला है कि उसे आर्थिक लाभ किससे है और वह उससे सम्बन्ध बनाने में जरा भी चुकना नहीं चाहता है।

 धार्मिक पतन -- जितनी तेजी से विज्ञान के साथ भौतिक और                        यान्त्रिक विकास हो रहा है उतनी है तेजी के साथ मनुष्य का नैतिक और आध्यात्मिक पतन भी हो रहा है और इसी कारण से मनुष्य अन्दर से एकदम खोखला होता जा रहा है चाहे व आर्थिक और भौतिक संसाधनों से कितना भी सम्पन्न क्यों न हो गया हो ।

मानसिक अशान्ति-- इस मशीनी भाग दौड़ भरी जिन्दगी में                             हममें से अधिकांश मानसिक रुप से कमजोर और अशान्त हो चुके हैं, इस अशान्ति का आलम यह है कि अधिकांश लोग तो वास्तविक नींद भी नहीं ले पाते उन्हें नींद की दवा लेनी पड़ती है । इस अशान्ति का ही परिणाम है कि आज प्रतिशोध, आत्म हत्या और हत्या की घटनाएं बढती जा रहीं हैं। इस अशान्ति का शिकार केवल धन और साधन सम्पन्न लोग ही नहीं हैं बल्कि वह लोग भी हैं जो भौतिक संसाधनों को प्राप्त कर अपने सुविधा और ऐश्वर्य को बढाने का लक्ष्य बना कर भागे जा रहे हैं।

आत्मबल की कमी-- यह मशीन और अर्थ प्रधानता का युग                                 हमें इस प्रकार एकाकी बना दिया है कि हम अपना आत्मबल ही खो चुके हैं । पुर्व काल में हमारे पुर्वज आत्मबल के इतने धनी थे कि वह बड़ी से बड़ी विपदा का भी सामना बड़े ही सहजता से करते हुए उससे बाहर ही नहीं निकलते थे बल्कि मानवता भी कायम रखते थे। हमाते पुर्वजों के आत्मबल का प्रमुख आधार संयुक्त परिवार, आध्यात्म, धर्म और संस्कार था लेकिन आज हम इस भौतिकवादी युग में इन सबको छोड़ कर इतने अकेले और अन्दर से कमजोर हो गये हैं कि एक छोटी सी समस्या से हम अवसादग्रस्तता हो जा रहे हैं और इतना ही नहीं किसी भी समय हम खुद को दुसरों की हाथों की कठपुतली बन जा रहे हैं ।

नीरस जीवन -- जिस प्रकार मनुष्य का दृष्टिकोण बदल कर                          मानवता से आर्थिकता की ओर गया है उसी प्रकार उसका जीवन भी नीरस होता गया है क्योंकि भौतिकता नें यान्त्रिक विकास किया और हम मनुष्य इन भौतिक संसाधनों की प्राप्ति के लिए यन्त्रों की तरह अपनी दिनचर्या बना लिए हैं बस धन के पीछे भागे जा रहे हैं एक ही रास्ते पर एक ही उद्देश्य लेकर हमारे पास खुद के लिए भी समय नहीं बचा है। सरल भाषा में कहें तो मनुष्य स्वयं को कोल्हु का बैल बना लिया है बस एक दिशा और धारा में चला जा रहा है। इसी निरसता/एकरसता से निकलने के लिए मनुष्य स्वच्छनदता के नाम पर उन्मादी हो जा रहा है और गलत रास्ते को पकड़ ले रहा है ।

विनाश को आतुर विष्फोटक पर खड़ी दुनिया -- आज                                                                   विज्ञान  और तकनीक के विकास के साथ अत्याधुनिक हथियारों का भी विकास हुआ है और इस विकास के साथ हथियार की संग्रह इच्छा राष्टों में ही नहीं व्यक्ति में बढती जा रही है जिसका परिणाम यह है कि सम्पूर्ण विश्व समाज विस्फोटक पर बैठा है साथ ही अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए इन हथियारों का दुरुपयोग भी किया जा रहा है या कहें कि निर्ममता से प्रयोग हो रहा है तो गलत नहीं होगा। 

                    लेकिन उपयुक्त बिन्दुओं और बातों का यह कदापि आशय नहीं है कि हम वर्तमान यान्त्रिक परिवेश से विरक्त हो जायें जो हमें कार्यों में सरलता दे रहा है, हमें थकान से बचा रहा है और खुद को व समाज को पीछे लेकर चले जायें । ऐसा करना हमारे लिए हितकर नहीं होगा, हमारे लिए हितकर यही है कि हम इस बदलती विचारधारा पर गहनता से दृष्टि बनाये रखें और यान्त्रिक विकास के साथ अपनें आत्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक मुल्यों का ह्रास न होनें दें और इनमें सन्तुलन बनाये रखें।

              सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर लेख का अवलोकन करने के लिए आप सभी देवतुल्य पाठकों का ह्रदय से आभार ।

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