जिस गति से भारतवर्ष में सिनेमा, इलेक्ट्रॉनिक मिडिया और सोशल मिडिया का प्रचलन बढ रहा है उससे कहीं तीव्र गति से पाश्चात्य सभ्यता का विकास और हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृतियों का विनाश हो रहा है । यह मेरी बात आज के तथाकथित आधुनिक समाज में आधुनिक विज्ञान और तकनीक को प्राथमिकता देने वाले युवा मित्रों को शायद रास न आये लेकिन यह कडवा सच है ।
जो भारत भूमि वसुधैव कुटुम्बकम् का सन्देश देती है, जिस संस्कृति में चींटी, वृक्ष, पहाड़, नदी तक पुजे जाने की परम्परा रही है, जिस संस्कृति में अतिथि को देवता का स्थान प्राप्त है, जिस सनातन संस्कृति का वैदिक विज्ञान है, जहाँ रिश्तों को सर्वोपरि स्थान दिया जाता रहा है उस धरा पर पाश्चात्य देशों की नकल करते हुए रिश्तों के प्रेम प्रदर्शन के लिए दिन निर्धारित कर दिये गये हैं । यह रिश्तों के लिए दिन निर्धारण की व्यवस्था तो पाश्चात्य देशों में है जहाँ माता सन्तान को जन्म देने के बाद छोड़ देती हों, जहाँ तलाक एक खेल हो और बच्चों की परवरिश पैसे से हो, जहाँ एक दुसरे के लिए, एक दुसरे की भावनाओं को समझने के लिए किसी के पास समय नहीं है और लोग एक दिन का समय निकाल कर उपहार दकर अपना प्रेम प्रदर्शित कर लेते हैं लेकिन हमारे देश में इस तरह की परम्परा निंदनीय ही नहीं चिन्ताजनक भी है क्योंकि जिस समाज और राष्ट्र की अपनी परम्परा और संस्कृति नष्ट हो जाय उसे पतन के गर्त में जाने से कोई नहीं बचा सकता ।
सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर आज विचार करते हैं इसी तरह के दिवस विशेष में से एक मातृ दिवस पर।
मातृ दिवस पर लोग विशेषतया हमारे युवा मित्र सोशल मिडिया पर तस्वीर के माध्यम से माता के लिए उपहार, प्रेम और सम्मान का दरिया बहा रहे हैं । सोशल मिडिया पर देखने से लग रहा है कि जैसे पुरा राष्ट्र मातृ भक्त है । माता के प्रति सोशल मिडिया पर प्रदर्शित प्रेम का १% भी वास्तविकता की धरातल पर उतर आवे तो किसी वृद्धाश्रम में कोई माँ नहीं मिलेगी । एक अत्यंत कडवा सच यह भी है कि जो लोग यह एक दिवसीय प्रेम की दरिया बहाते हैं वही लोग माँ के अनुशासन में रहना तो दुर उनकी सेवा करते हुए भी नहीं मिलेंगे। आज हमारे समाज में माता पिता की स्थिति अत्यंत दयनीय होती जा रही है, एकल परिवार के चक्कर में माता पिता को भी एक वस्तु की तरह बांटा जाने लगा है है कि कौन किसके पास कितने दिन रहेगा।
यदि कुछ पल के लिए यह मान भी लिया जाय कि सोशल मिडिया पर प्रदर्शित यह प्रेम वास्तविक है तो क्या हमने कभी इस बात पर विचार किया है कि अखिल ब्रह्माण्ड की तरह विस्तृत माँ के लिए हमारे द्वारा निर्धारित एक दिन, यह उपहार, यह प्रेम प्रदर्शन कितना सार्थक और उचित है ??
मेरे विचार से माँ का कोई एक दिन नहीं होता है, माँ का दिन तो हमारी अन्तिम साँस तक है । माँ का दिन तो जब से हम माँ के गर्भ में आ गये तबसे लेकर जब तक हम जिन्दा हैं तब तक है।
माँ -- यह एक ऐसा शब्द एक ऐसा रिश्ता जिसकी व्याख्या करने की शक्ति किसी भाषा, किसी शब्द, किसी कलमकार में नहीं है, माँ सभी उपमा और उपमानों से ऊपर है । माँ तो प्रति पल बहती वह जल धारा है जो सम्पूर्ण सृष्टि को जीवन प्रदान करती है, माँ रेगिस्तान की तपती वह भूमि है जो स्वयं तप कर हमारी परवरिश करती है, माँ मानव कल्याण के लिए निरन्तर बहती वह दरिया है जो सदैव परोपकार और निर्मलता के साथ बहती है, माँ वह अटल हिमालय पर्वत है जो हर विपदा को स्वयं झेल कर हमें सुरक्षित रखती है ।
माँ को किसी भी सीमा में बाँधा ही नहीं जा सकता क्योंकि उसमें तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाया हुआ है।
जिस माँ के बिना परमात्मा भी सृष्टि संचालन की कल्पना नहीं कर सकते, जिस माँ की गोद में खेलने और आँचल की छाँव प्राप्त करने के लिए देव और मुनि भी लालायित रहते हैं उस माँ के लिए कुछ शब्द, कुछ उपहार, एक दिन का निर्धारण कम से कम भारत भूमि ओर तो अशोभनिय लगता है।
त्याग और तपस्या --- माँ से बड़ा तपस्वी और त्यागी मेरे विचार से इस धरा पर कोई हो ही नहीं सकता । गर्भधारण से लेकर दुग्धपान की अवधि तक माँ अपनी इच्छा और रुचि का भोजन तक नहीं करती, शिशु के बड़े होने पर भी उसी की इच्छा और स्वास्थ्य को ध्यान में रख कर भोजन पकाती है ।
यदि संक्षेप में कहें तो माँ बनने के बाद एक नारी अपनी पसन्द और ना पसन्द को त्याग ही देती है।
माँ की सहन शक्ति -- माँ के सहन शक्ति सीमाओं से परे है गर्भधारण से लेकर नौ महीने शिशु को गर्भ में रखना, प्रसव वेदना और शिशु को बालक/युवा बनानें में एक माँ को कितना कष्ट सहन करना पड़ता है इसका आकलन भी नहीं किया जा सकता और ना ही शब्दों में इसे प्रर्दशित किया जा सकता है।
माँ का लगाव -- एक सन्तान से माँ के लगाव को निर्धारित ही नहीं किया जा सकता क्योंकि एक माँ का खाना, पीना, सोना, जगना, हँसना, रोना सब उसकी सन्तान ओर निर्भर रहता है । जब एक शिशु सोता है माँ सोती ही, शिशु के जगने पर माँ जग जाती है, शिशु के हँसने पर प्रफुल्लीत हो उठती है और कष्ट में होने पर तडप उठती है ।
माँ का प्यार -- यदि प्यार को परिभाषित करने को कहा जाय तो प्रत्येक व्यक्ति के अपने शब्द होंगे, अपने विचार होंगे इतना ही नहीं प्रत्येक व्यक्ति का प्यार करने की सीमा होगी लेकिना माँ तो सबसे ऊपर है सबसे अलग होता है।
माँ के प्यार को शब्द तो नहीं दिया जा सकता लेकिन महसूस अवश्य किया जा सकता है और इसे महसूस करने के लिए हमें लौटना होगा अपने पुराने दिनों (बचपन और पुर्व युवा अवस्था के दिन) में; माँ का पेट पर अपनी सन्तानों के पैर का प्रहार सहन कर प्रसन्न होना, बच्चों को गलों से लगा कर प्यार बरसाना, गृह कार्य की अनिवार्यता के साथ शिशु के हाथ में खिलौना देकर काम करना, अपने पल्लु से चेहरे साफ करना, गोद में दबा कर भोजन कराना, भुत परी रानी आदि की कहानियों में उलझा कर दुध पिलाना, भोजन करनें में आना कानी करने पर एक हाथ में निवाला और दूसरे हाथ में छड़ी लेकर बैठना और न खाने पर छड़ी से दण्ड देने के उपरान्त बच्चे के रोने और खाने के बीच खुद रो देना, बाहर जाने पर घर के अभिभावक से छुपा कर पैसे देना, देर से आने पर चिन्ता करना, स्वयं देर से सोने के बाद भी भोर में जगा कर पढाई के लिए प्रेरित करने के साथ चाय/काफी बना कर देना, असफल होने पर हिम्मत देने के साथ पिता जी के क्रोध से बचाना, युवा अवस्था में दुर रहने पर अपनी कसम देकर कुशलता पुछते हुए यह कहना कि झुठ तो नहीं बोल रहे। यह प्रेम जी पराकाष्ठा है।
यह सब एक माँ के अलावा कोई और कर ही नहीं सकता और एक माँ बच्चे के लिए जीवन के हर क्षेत्र में अपना योगदान देने के साथ जो खुशियाँ देती है वह अद्भुत और अद्वितीय है।
अन्त में मातृ शक्ति के प्रत्येक रुप को प्रणाम करने के साथ इतना कहते हुए कि इस लेख को समाप्त करता हुँ कि--
जिस धरा और सनातन संस्कृति के शड्.कराचार्य जी इन्द्र देव के सामने भी न झुकते हुए खड़े रहे और अपने दण्ड को धारण किये माँ को दण्डवत प्रणाम करते हैं उस संस्कृति में और उस धरा पर माँ के लिए एक दिन निर्धारित करना व मातृ दिवस (मदर्स डे) मनाना अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ ही माँ की त्याग, तपस्या का तिरस्कार करना ही है ।
यह लेख लेखक का निज विचार है । इसका उद्देश्य किसी की भावना आहत करना नहीं है। इसका अपवाद या मतभिन्नता सम्भव है ।
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