सूने होते गाँव, कस्बों के मकान, मोहल्लों का जिम्मेदार कौन आइये लेखक का विचार समझने का प्रयास करते हैं सुविचार संग्रह ( suvicharsangrah.com ) पर ......
शायद हमने कभी ध्यान से देखा ही नहीं या फिर हमारा गली मुहल्ले से इतनी आवश्यकता नहीं पड़ती या हम कोई रिश्ता ही नहीं रखते गली मुहल्ले या अपने गाँव से , हम बस तेजी से अपने दो पहिया या चार पहिया वाहन से सीधे अपने काम पर निकल जाते है और वापस अपने घर आ जाते है, इसलिए शायद हमारी सुने होते मकानों, मोहल्लों और गाँवों पर नज़र जा नही पाती है या फिर हम खुद अपना जन्म स्थान छोड़कर किसी बड़े शहर में आकर बस गए हैं, तो हमें एहसास ही नहीं कि कब हमारे मोहल्ले के मकान सुने हो गए, उनमे सिर्फ बूढ़े माँ बाप पड़े हैं और फिर कब धीरे धीरे ऐसे मकानों से मोहल्ले सुने होते चले गये, इसका जायज़ा कभी लिया जाय की कितने घरो में अगली पीढ़ी के बच्चे रह रहे हैं और कितने बाहर निकलकर बड़े शहरों में जाकर बस गए हैं, कभी हम एक बार उन गली मोहल्लों से पैदल निकलने की कोशिश करें जहां से हम बचपन मे स्कूल जाते समय या दोस्तो के संग हुडदंग बाजी करते हुए निकलते थे, तिरछी नज़रो से झांकने पर लगभग हर घर से चुपचाप सी सुनसानीयत मिलती है, न कोई आवाज़, न बच्चों का शोर, बस किसी किसी घर के बाहर या खिड़की में आते जाते लोगों को ताकते बूढ़े जरूर मिल जाते हैं।
इस भौतिकवादी और अर्थ प्रधान युग मे हर व्यक्ति चाहता है कि हमारे बच्चे अच्छे से अच्छा पढ़े, हमें लगता है या फिर दूसरे लोग ऐसा लगवाने लगते हैं कि छोटे शहर या कस्बे में पढ़ने से बच्चे का भविष्य खराब हो जाएगा या फिर बच्चा बिगड़ जाएगा। बस यहीं से बच्चे निकल जाते हैं बड़े शहरों के हास्टलों में। अब भले ही दिल्ली और उस छोटे शहर में उसी क्लास का पाठ्यक्रम और किताबें वही हो मगर मानसिक दवाब सा आ जाता है बड़े शहर में पढ़ने भेजने का । हालांकि बाहर भेजने पर भी मुश्किल से 1%बच्चे आई आई टी, पी एम टी आदि निकाल पाते हैं और फिर मां बाप बाकी बच्चो का पेमेंट सीट पर इंजीनियरिंग, मेडिकल या फिर बिज़नेस मैनेजमेंट में दाखिला कराते हैं । ३-४ वर्ष बाहर पढ़ते पढ़ते बच्चे बड़े शहरों के माहौल में रच बस जाते हैं और फिर वहीं अपने जीविकोपार्जन का साधन ढूंढ लेते हैं। अब त्योहारों पर घर आते हैं माँ बाप के पास। माँ बाप भी सभी को अपने बच्चों के बारे में गर्व से बताते हैं उनके वेतन आदि के बारे में । कुछ साल .....मां बाप बूढ़े हो जाते हैं और बच्चे लोन लेकर बड़े शहरों में फ्लैट ले लेते हैं। अब अपना फ्लैट है तो त्योहारों पर भी आना जान बंद। मात्र किसी आवश्यक शादी विवाह या किसी आयोजन में आते जाते हैं । अब शादी विवाह भी बड़े विवाह भवन में होते है तो मुहल्ले में और घर जाने की भी ज्यादा आवश्यकता पड़ती ही नही है। हाँ शादी विवाह में कोई मुहल्ले वाला पूछ भी ले कि भाई अब कम आते जाते हो तो छोटे शहर, छोटे माहौल और बच्चों की पढ़ाई का बहाना देकर बोल देते है कि अब यहां रखा ही क्या है।
खैर, बेटे बहुओं के साथ फ्लैट में शहर मे रहने लगते है, अब फ्लैट में तो इतनी जगह होती नहीं और ना ही अब इच्छा ही रहती है की बूढ़े खांसते बीमार माँ बाप को अपने साथ मे रखा जाए। बेचारे पड़े रहते हैं अपने बनाये या पैतृक मकानों में । आज के वातावरण में तो अब कोई बच्चा बागवान पिक्चर की तरह मां बाप को आधा - आधा रखने को भी तैयार नहीं है। अब बस घर खाली खाली, मकान खाली खाली और धीरे धीरे मुहल्ला और गाँव खाली हो रहा है। अब ऐसे में छोटे शहरों में कुकुरमुत्तो की तरह उग रहे हैं "प्रॉपर्टी डीलर" जिनकी गिद्ध जैसी पैनी निगाह इन खाली होते मकानों पर है और ये प्रॉपर्टी डीलर सबसे ज्यादा ज्ञान बांटते हैं कि छोटे शहर में रखा ही क्या है?? साथ ही ये किसी बड़े लाला को इन खाली होते मकानों में मार्केट और गोदामों का सुनहरा सपना और भविष्य दिखाने लगते हैं। बाबू जी और अम्मा जी को भी बेटे बहु के साथ बड़े शहर में रहकर आराम से मज़ा लेने का सुनहरे सपने दिखाकर मकान बेचने को तैयार कर लेते हैं। गाँवों और छोटे शहरों में अति सम्पन्न लोग खुद अपने ऐसे पड़ोसी के मकान पर नज़र रखते है और खरीद लेते है कि मार्केट बनाएंगे या गोदाम, जबकि खुद का बेटा छोड़कर किसी बड़े शहर की बड़ी कंपनी में काम कर रहा होता है इसलिए हम खुद भी इसमें नही बस पाएंगे।
हर दूसरा घर, हर तीसरा या चौथा परिवार......सभी के बच्चे बाहर निकल गए है। वहीं बड़े शहर में मकान ले लिये हैं, बच्चे पढ़ रहे है.....अब वो वापस नही आएंगे। छोटे शहर में रखा ही क्या है.....अंग्रेज़ी मध्यम स्कूल नहीं है, हॉबी क्लासेज नहीं है, IIT/PMT की कोचिंग नहीं है, मॉल नहीं है, माहौल नहीं है.......कुछ नहीं है, आखिर इनके बिना जीवन कैसे चलेगा। यदि UPSC CIVIL SERVICES का रिजल्ट उठा कर देखा जाय तो सबसे ज्यादा लोग ऐसे छोटे शहरों से ही मिलेंगे। मात्र मन का वहम है।
मेरे जैसे भावनात्मक/ मुर्ख लोगों के मन के किसी कोने में होता है कि भले ही कहीं जमीन खरीद लें मगर रहें अपने इसी छोटे शहर में अपने लोगो के बीच में पर जैसे ही मन की बात रखते है, तथाकथित बुद्धिजीवी पड़ोसी समझाने आ जाते है कि "अरे पागल हो गए हो, यहाँ बसोगे, यहां क्या रखा है"? वो भी गिद्ध की तरह मकान बिकने के ही प्रतीक्षा करते है, बस सीधे कह नहीं सकते।
अब ये मॉल, ये बड़े स्कूल, ये बड़े टॉवर वाले मकान.....सिर्फ इनसे ज़िन्दगी तो नहीं चलेगी। एक वक्त (यानी वृद्धावस्था) ऐसा आता है जब हमें अपनों की आवश्यकता होती है और ये अपने हमें छोटे शहरों या गांवो में ही मिल सकते हैं। बडे शहरों में तो शव यात्रा चार कंधो पर नहीं बल्कि किसी गाडी से ले जाना पडेगा, सीधे शमशान, शायद एक दो रिश्तेदार बस.....और सब समाप्त। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमे कोरोना काल के दो वर्षों में देख लिया बड़े शहरों में भोजन तक को पुछने वाले नहीं थे अपने गाँव कस्बों में दो वक्त का भोजन तो मिला।
कुछ दशक पहले लोहार, स्वर्णकार, दर्जी, मोची, कुम्हार, राजगीर कोई भूखा नहीं रहता था सबके पास रोजगार होता था।
ये खाली होते मकान, ये सुने होते मुहल्ले......इन्हें सिर्फ प्रॉपर्टी की नज़र से देखना हमें बन्द करना होगा, इन्हें जीवन की खोती जीवंतता की नज़र से देखना होगा। हम पड़ोसी विहीन हो रहे है। हम वीरान हो रहे है...…. जन्मस्थानों के प्रति मोह जगृत करना होगा, प्रेम जगाना होगा।
यह लेखक का निज विचार है इस विचार का अपवाद सम्भव है या यह भी सम्भव है कि यह विचार ही गलत हो।
सुविचार संग्रह ( suvicharsangrah.com) पर समय देकर इस लेख को पढ़ने वाले देव तुल्य पाठकों का ह्रदय तल से आभार एवं आर्शीवाद स्वरूप सुझाव/टिप्पणी की आकांक्षा ।
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