अक्सर हम सब कहते सुनते हैं बड़ा संकट है, रोटी, कपड़ा, दवा और मकान जैसी अनिवार्य आवश्यकता भी पूर्ण नहीं हो पा रही हैं । बड़ी सहजता से कह देते हैं यह पुरा नहीं हो पा रहा, वह पुरा नहीं हो पा रहा है । कुछ हद तक कुछ व्यक्ति के साथ यह संभव है ऐसा भी हो, लेकिन बहुत बड़ी कमी यह है कि हम लोग अपना दोष स्वीकार नहीं करते न स्वीकार करने के लिए तैयार होते हैं । इससे भी कष्टकर और बड़ी समस्या यह है कि "जरूरतें/इच्छाएं" "आवश्यकता" से बहुत अधिक बढ़ गई हैं । इच्छाओं और अनैतिकता पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं रह गया है । मन और इन्द्रियाँ इतनी स्वतंत्र व दल दल रुपी हो गयी हैं कि संयम रुपी प्रवृत्तियाँ नष्ट हो गयी हैं। आय, सामग्री सब कुछ पहले से अधिक है पर क्या करें, हमारी इच्छाओं की भूख इतनी बढ़ गई हैं कि बढ़े हुए साधनों से भी काम पूरे नहीं हो पा रहे हैं ।
हमारी भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि हम लोग स्वयं पर "संयम" करना सीखें । केवल साधनों की तृष्णा बढ़ती रही और गुणों का विकास न हुआ तो उन्नति का मूल उद्देश्य नष्ट होकर दुर्भावनाओं का विकास होने लगेगा । साधन तो होंगे पर हम लोग सुखी नहीं होंगे ।
संयम के साथ ही हमें यह उद्देश्य सामने रखना होगा कि परिवार के प्रत्येक सदस्य को जीवनरक्षक और निपुणता दायक आवश्यकता पहले पुर्ण हों । जब तक ये आवश्यकता न पुर्ण हो जाय, तब तक किसी प्रकार की आराम या विलासिता की वस्तुओं से हमें बचना होगा। यदि कोई अस्वस्थ है, तो पहले उसकी चिकित्सा होनी चाहिए। यदि कोई अध्ययनरत है तो उसकी व्यवस्था करना चाहिए। जब तक यह पुर्ण न हों तब तक कृत्रिम आवश्यकताओं से दूर रहने का प्रयत्न करना चाहिए।
प्रत्येक व्यक्ति को अपने खर्च पर गंभीरता से विचार कर कृत्रिम आवश्यकताओं,फैशन, मिथ्या प्रदर्शन, फिजूल खर्ची कम करनी चाहिए। आदतों को सुधारना ही श्रेयकर और स्थायी है। ऐशो आराम/ विलासिता के व्यय को कम करके बचे हुए रुपये को जीवन रक्षक अथवा निपुणता दायक या किसी टिकाऊ वस्तु पर व्यय करना चाहिए। बचत का रुपया बैंक में भविष्य के आकस्मिक खर्चों, विवाह शादियों, मकान, बीमारियों के लिए रखना चाहिए। प्रत्येक पैसा समझदारी से जागरुक रह कर भविष्य पर विश्वास न करते हुए खर्च करने से ही प्रत्येक व्यक्ति अधिकतम संतोष और सुख प्राप्त कर सकता है।
आमदनी से नहीं, हमारी आर्थिक स्थिति हमारे खर्च से नापी जाती है। यदि खर्च आमदनी से अधिक हुआ तो बड़ी आय से भी कोई लाभ नहीं होगा ।
हमें दुरदर्शीता पुर्वक अपनी आवश्यकताओं और खर्चों का पहले से ही बजट तैयार करना चाहिए फिर खर्च करना चाहिए यदि हमने ऐसा नहीं किया तो आवश्यकता पड़ने पर दुसरों के सामने हाथ फैलाकर मांगने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं होगा जिससे दुसरों के साथ अपनी नजरों में भी गिरने से हमें कोई नहीं बचा सकता मांगने पर यह भी आवश्यक नहीं कि सामने वाला हमारी मदद करेगा ही मदद न करने की स्थिति में हमारे पास अवसाद, आत्मग्लानि, पश्च्याताप के अतिरिक्त हमारे हाथ कुछ नहीं आयेगा।
किसी कवि ने सही कहा है-
कौडी कौडी जोड़ि कै, निधन होत धनवान।
अक्षर अक्षर के पढ़े, मूरख होत सुजान॥
"यह लेख मेरा निज अनुभव है इसका अपवाद सम्भव है।"
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