सामान्यतया हम दान का मतलब किसी को धन देने से लगा लेते हैं। धन के अभाव में भी हम दान कर सकते हैं। तन और मन से किया गया दान भी उससे कम श्रेष्ठ नहीं है।
किसी भूखे को भोजन, किसी प्यासे को पानी, गिरते हुए को संभाल लेना, किसी रोते बच्चे को गोद में उठा लेना, उसे हँसा देना , किसी अनपढ़ को साक्षर बना कर इस योग्य बना देना कि वह स्वयं हिसाब किताब कर सके और किसी वृद्ध का हाथ पकड़ उसके घर तक छोड़ देना यह भी किसी दान से कम नहीं है।
हम किसी को उत्साहित कर दें, आत्मनिर्भर बना दें या साहसी बना दें, यह भी दान है। अगर हम किसी को उपहार का ना दे पायें तो मुस्कान का दान दें, आभार भी काफी है। किसी के भ्रम-भय का निवारण करना और उसके आत्म-उत्थान में सहयोग करना भी दान ही है।
हमने कभी विचार किया है कि हम मन्दिर में बहुत कुछ दान देते हैं, लेकिन क्या हमने अपना घमण्ड, अहंकार, बुराई, गन्दगी, लालच, दुसरों के प्रति दूर्व्यवहार, आदि कभी अर्पित किया है ? किसी दिन जाकर एक प्रतिज्ञा ली की आज मे झूठ बिल्कुल नहीं बोलूंगा, आज किसी को अपशब्द नही बोलूंगा ....... ?
सुविचार संग्रह पर यह लेख लेखक का निज विचार है। इसका उद्देश्य किसी की भावना को आहत करना नहीं है।
सुविचार संग्रह (suvicharsangrah.com) पर समय देने के लिए आप सभी देव तुल्य पाठकों का आभार साथ ही मार्गदर्शन की आकांक्षा ।
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