स्वयं का सुधार करने के यदि हम इच्छुक हैं तो स्वयं का सुधार करने के लिए सबसे आवश्यक और पहला कदम है कि हम पहले अपनी समीक्षा करें।
यदि हम स्वयं का सुधार करना आवश्यक समझते हैं तो सर्वप्रथम हमें ईमानदारी से स्वयं की समीक्षा करने के लिए तत्पर रहना होगा । यदि हम स्वयं की समीक्षा करना प्रारम्भ कर दिये तो हम गिरी हुई स्थिति में पड़े नहीं रह सकते और हमारे जीवन का विकास होना निश्चित है। इस परिस्थिति में प्रगति के पथ पर चलने से हमें कोई नहीं रोक सकता । यदि हम उतावले, जल्दबाज, असंतुष्ट और उद्विग्न हैं तो निश्चित ही हमारी गिनती अधपगले में की जा सकती है। ऐसे व्यक्ति जो कुछ चाहते हैं उसे तुरन्त ही प्राप्त हो जाने की कल्पना किया करते हैं। यदि प्राप्ति में जरा भी विलम्ब होता है तो हम अपनी मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और प्रगति के लिए अत्यन्त ही आवश्यक और महत्वपूर्ण गुण मानसिक स्थिरता को खोकर असंतोष रूपी भारी विपत्ति को आत्मसात् कर लेते है, जिसकी वजह से हम दीर्घकालीन उन्नति मार्ग पर नहीं चल सकते। हमारा स्वतन्त्र विवेक जिस निष्कर्ष हमें पर पहुँचाता है उसे साहस के साथ हमें प्रकट करते हुए दूसरों को बताना होगा उसके लिए हमें कितने ही विरोध का सामना क्यों न करना पड़े, हमारा विवेक जो निर्णय देता है, उसका गला हमें कदापि नहीं घोटना चाहिए । इससे हमारा बौद्धिक तेज, विचारों की प्रखरता बढ़ेगी और हमारा विवेक हमें और अधिक कार्य कुशल और सामर्थ्यवान बनायेगी। आनंद का सबसे बड़ा दुश्मन यदि कोई है तो वह है -असंतोष। हमें प्रगति के पथ पर उत्साहपूर्वक बढते हुए अपना सम्पूर्ण पुरुषार्थ करें, सकारात्मक और आशापूर्ण एक अप्रतिम सुंदर भविष्य की रचना के लिए संलग्न रहने के साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि असंतोष की आग में जलना हम सदा सर्वदा के लिए छोड़ दें। असन्तोष रुपी दावानल में आनंद ही नहीं बल्कि हमारा मानसिक संतुलन और सामर्थ का स्रोत भी समाप्त हो जाता है। असंतोष से प्रगति का पथ प्रशस्त नहीं बल्कि अवरुद्ध ही होता जाता है इसलिए हमें सदैव अवरोधों की परवाह किये बिना असन्तोष, जल्दबाजी, उद्विघ्नता से दूर सन्तोष का मार्ग चयन करना होगा ।
यह लेख लेखक का निज विचार है अपवाद/गलती सम्भव है।
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